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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थान्वयः — त्रियाणिया – जानकर दुक्खविवडणं-दुःखों के बढ़ाने वाले धणं-धन को, तथा ममत्तबंधं - ममत्व और बन्धन को बढ़ाने वाले च- और महाभयावहं - महान् भय के देने वाले सुहावहं सुख के देने वाली धम्मधुरं - धर्मधुरा जो अणुत्तरं - प्रधान है, उसको धारेह-धारण करो, जो कि निव्वाणगुणावहं - निर्वाण गुणों को धारण करने वाली और महं-महान | त्ति बेमि - इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
मूलार्थ - हे पुरुषो ! धन को दुःख, ममत्व और बन्धन का बढ़ाने वाला समझकर तुम धर्मधुरा को धारण करो, जो कि सुखों के बढ़ाने वाली और निर्वाणगुणों के देने वाली अतएव महान् — सब से बड़ी — है ।
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टीका - मृगापुत्र के इस आख्यान को सुनने के अनन्तर विचारशील पुरुषों का जो कर्तव्य है, उसकी ओर निर्देश करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि — यह धन दुःखों को बढ़ाने और ममता के बन्धन में डालने वाला है । इसलिए इसका परित्याग करके विज्ञ पुरुषों को धर्म में ही अनुरक्त होना चाहिए । क्योंकि धर्म ही सुख-सम्पत्ति का देने वाला है और मोक्ष की उपलब्धि के लिए जिन गुणों की आवश्यकता है, उनकी प्राप्ति भी धर्म के अनुष्ठान से ही होती है । अथवा निर्वाण में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि जो गुण हैं, उनकी उपलब्धि का कारण भी धर्म ही है। इसलिए यह महान् है । सारांश यह है कि दुःख, शोक और सन्ताप आदि अनेकविध अनर्थों के मूलभूत इस धन का परित्याग करके, परम सुख और . असीम शान्ति को देने वाले धर्म का ही अनुसरण करना चाहिए। क्योंकि धर्म अनन्त सुख को प्राप्त कराने वाला है और धन इसके विपरीत महाभय का हेतु है । इसके अतिरिक्त 'त्ति बेमि' का अर्थ पूर्व की भाँति ही कर लेना ।
एकोनविंशाध्ययन समाप्त ।