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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकोनविंशाध्ययनम्
टीका - इस गाथा में मृगापुत्र के पूर्वोक्त संभाषण को प्रामाणिक और सर्व प्रकार से उपादेय बतलाया गया है । क्योंकि उनका कथन आप्तप्रणीत स्वतः प्रमाण है । मृगापुत्र तप और चारित्र की उत्कृष्टता से संसार में विश्रुत हुए, महान् प्रभाव वाले हुए । अतएव उनका प्रत्येक वचन संमाननीय और आचरणीय है । उन्होंने अपने माता-पिता के समक्ष नरकादि चारों गतियों का जो वर्णन किया है, वह आगमविहित होने के अतिरिक्त उनका अनुभूत भी था । अतः उनके उक्त संभाषण को मनन करके [ प्रत्येक संयमशील साधु पुरुष को धर्म में प्रयत्नशील होना चाहिए ] यह अध्याहारित क्रिया से अर्थ कर लेना । और वृत्तिकारों ने तो युग्म गाथाओं की एक ही व्याख्या की है । वस्तुतः दोनों ही तरह अर्थ की संगति हो जाती है । अब अध्ययन की समाप्ति करते हुए फिर सूत्रकार कहते हैं
वियाणिया दुक्खविवडूणं धणं,
ममत्तबंधं च महाभयावहं ।
सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं,
धारेह निव्वाणगुणावहं महं ॥ ९९ ॥ त्ति बेमि ।
इति मयापुत्तीयं अज्झयणं समत्तं ॥ १९ ॥
विज्ञाय दुःखविवर्धनं धनं,
ममत्वबन्धं च महाभयावहम् । सुखावहां धर्मधुरामनुत्तरां,
धारयध्वं निर्वाणगुणावहां महतीम् ॥ ९९ ॥ इति ब्रवीमि ।
इति मृगापुत्रीयमध्ययनं समाप्तम् ॥१९॥