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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका-इस गाथा में प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने विचारशील पुरुषों की शुद्ध मनोवृत्ति और तदनुकूल आचार का दिग्दर्शन कराया है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष हेयोपादेय के ज्ञाता, सदसद् का विचार करने वाले, पूर्ण बुद्धिमान होते हैं, वे इन तुच्छ सांसारिक विषयों में आसक्त नहीं होते । किन्तु इनके मर्म को समझकर मृगापुत्र की तरह इनका सर्वथा परित्याग करके, संयमवृत्ति के अनुसरण द्वारा वीतरागता की प्राप्ति करके सर्वश्रेष्ठ और अविनाशी मोक्ष-सुख को प्राप्त करते हैं।
अब भङ्गयन्तर से फिर इसी बात को कहते हैंमहप्पभावस्स महाजसस्स,
मियाइपुत्तस्स निसम्म भासियं । तवप्पहाणं चरियं च उत्तम,
गइप्पहाणं च तिलोअविस्सुतं ॥९८॥
महाप्रभावस्य महायशसः,
मृगायाः पुत्रस्य निशम्य भाषितम् । तपःप्रधानं चारित्रं चोत्तम,
प्रधानगतिं च त्रिलोकविश्रुताम् ॥१८॥
पदार्थान्वयः-महप्पभावस्स-महाप्रभाव वाले महाजसस्स-महान यश वाले मियाइ-मृगा पुतस्स-पुत्र के भासियं-भाषण को निसम्म-विचारपूर्वक सुनकर तवप्पहाणं-तपःप्रधान च-और उत्तम-उत्तम चरियं-चारित्र च-और गइप्पहाणंगतिप्रधान तिलोअविस्सुतं-तीन लोक में विश्रुत ।
__ मूलार्थ-महान् प्रभाव और महान् यश वाले मृगापुत्र के तपःप्रधान, चारित्रप्रधान और गतिप्रधान, तथा तीनों लोकों में सुप्रसिद्ध ऐसे उत्तम पूर्वोक्त भाषण को विचारपूर्वक श्रवण करके धर्म में पुरुषार्थ करना चाहिए।