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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकोनविंशाध्ययनम्
و به په موده ی سے حیا احمی می می ما مو مو میدم به ای
की शुद्धि नितान्त आवश्यक है । तथा अनेक वर्षों तक उसने इसी प्रकार से संयम का पालन किया और अन्त में एक मास का उपवास करके शरीर को छोड़कर मोक्षगति को प्राप्त कर लिया । यहाँ पर 'सिद्धि' के साथ 'अणुत्तर' विशेषण इसलिए लगाया गया है कि 'सिद्धि' शब्द से 'अंजनसिद्धि' आदि लौकिक सिद्धियों का ग्रहण न हो। सारांश यह है कि मृगापुत्र ने संयमवृत्ति का भली भाँति परिपालन किया और उसके फलस्वरूप उनको सर्वोत्तम मोक्षगति की प्राप्ति हुई। यद्यपि सूत्रकार ने इनके–मृगापुत्र के समय का कोई निर्देश नहीं किया तथापि पाँच महाव्रत और बहुत वर्षों तक श्रमण धर्म का पालन-इन दो बातों के उल्लेख से इनके समय का कुछ निश्चय किया जा सकता है। क्योंकि प्रथम और चरम तीर्थंकर के समय में ही पाँच महाव्रतों का उल्लेख मिलता है, अन्य तीर्थंकरों के समय में नहीं। इससे प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में ही इनका होना सुनिश्चित होता है। परन्तु प्रथम तीर्थंकर के समय में आयु का प्रमाण अधिक बतलाया गया है और सूत्रकार ने कुमार अवस्था में इनका संयम धारण करना बतलाया है तथा बहुत वर्ष तक संयम का आराधन करके मोक्ष जाना कहा है, इससे इनका समय चरम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के अति निकट ही प्रतीत होता है। वास्तविक तत्त्व तो केवलीगम्य है। .
अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार लिखते हैंएवं करन्ति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा । विणिअटुंति भोगेसु, मियापुत्ते जहा मिसी ॥१७॥ एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः । विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः, मृगापुत्रो यथा ऋषिः ॥१७॥
___पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार संबुद्धा-तत्त्ववेत्ता करन्ति-करते हैं पंडियापंडित पवियाखणा-प्रविचक्षण भोगेसु-भोगों से विणियद्वृति-निवृत्त हो जाते हैं जहा-जैसे मियापुत्ते-मृगापुत्र मिसी-ऋषि हुआ ।
___ मूलार्थ—इसी प्रकार तत्त्ववेत्ता पुरुष करते हैं, जो पंडित और विचक्षण हैं। वे भोगों से इसी प्रकार निवृत्त हो जाते हैं, जैसे मृगापुत्र ऋषि निवृत्त हुआ।