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________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । बहुयाणि उ वासाणि, सामण्णमणुपालिया मासिएण उ भत्तेण सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ॥९६॥ " [ ८५ एवं ज्ञानेन चरणेन, दर्शनेन तपसा च । भावनाभिश्च शुद्धाभिः सम्यग् भावयित्वाऽऽत्मानम् ॥९५॥ बहुकानि तु वर्षाणि श्रामण्यमनुपालय मासिकेन तु भक्तेन, सिद्धिं " I प्राप्तोऽनुत्तराम् ॥९६॥ 4 पदार्थान्वयः — एवं - इस प्रकार नाणेण- ज्ञान से चरणेण चारित्र से दंसणेण - दर्शन से य-और तवेण - तप से, तथा सुद्धाहिं - विशुद्ध भावनाहिंभावनाओं से सम्मं-भली प्रकार अप्पयं-आत्मा को भावेतु-भावित करके । बहुयाणि-बहुत वासाणि - वर्षों तक सामरणम् - श्रमण धर्म का अणुपालिया - परिपालन करके उ-वितर्क में मासिएण - मासिक भत्ते - भ -भक्त से अणुत्तरं - प्रधान सिद्धि-सिद्धगति को पत्तो - प्राप्त हुआ उ-पादपूर्ति में । मूलार्थ — इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप तथा विशुद्ध भावनाओं के द्वारा आत्मा को भली प्रकार भावित करके - अतिरंजित करके, एवं अनेक वर्षों तक भ्रमण धर्म का परिपालन करके, एक मास के उपवास से - [ शरीर को छोड़कर ] सिद्धगति - मोच को - वह मृगापुत्र – प्राप्त हुआ । हुए टीका — अब शास्त्रकार उक्त दो गाथाओं के द्वारा मृगापुत्र के किये क्रिया-कलाप के फल का वर्णन करते हैं । यथा — उन्होंने — मृगापुत्र ने — ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से अपनी आत्मा को परिमार्जित करके तथा विशुद्ध भावनाओं के द्वारा अर्थात् पाँच महाव्रतों की २५ और अनित्यादि द्वादशविध भावनाओं के द्वारा आम को सम्यक्ता भावित करके अनेक वर्षों तक संयम का पालन करके परम गति— सिद्धस्वरूप — को प्राप्त किया । यहाँ पर इतना स्मरण रहे कि आत्मा का पर्यालोचन विशुद्ध भावनाओं के द्वारा ही सम्भव हो सकता है परन्तु जब तक योग, मन, वाणी और शरीर के व्यापार विशुद्ध नहीं होंगे, तब तक भावनाओं की शुद्धि नहीं हो सकती । अतः विशुद्ध भावनाओं के द्वारा आत्मा को भावित करने के लिए योगों
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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