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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् . अप्पसत्थेहिं दारेहि, सव्वओ पिहियासवो। अज्झप्पज्झाणजोगेहिं, पसत्थदमसासणो ॥९॥ अप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः, सर्वतः पिहितात्रवः। अध्यात्मध्यानयोगैः , प्रशस्तदमशासनः ॥९॥ ___ पदार्थान्वयः-अप्पसत्थेहि-अप्रशस्त दारेहि-द्वारों से निवृत्त हुआ सव्वओ-सर्व प्रकार से पिहियासवो-पिहिताश्रव होकर अन्झप्प-अध्यात्म झाणध्यान जोगेहि-योगों से युक्त हुआ पसत्य-सुन्दर है दम-उपशम और सासणोभगवान् का शिक्षारूप शासन जिसका । मूलार्थ-अप्रशस्त द्वारों से निवृत्त हुआ, सर्व प्रकार से पिहिताश्रव बनता हुआ, अध्यात्मयोग से युक्त होकर प्रशस्त, उपशम और भगवान् के शिक्षारूप आगम का वेत्ता बन गया। टीका-इस गाथा में भी मृगापुत्र के आन्तरिक विशुद्ध आचार का दिग्दर्शन कराया गया है। वे मृगापुत्र अप्रशस्त योगों-मन, वचन और काया के व्यापारोंद्वारा आने वाले कर्माणुओं को रोकने से पिहिताश्रव बन गये अर्थात् आश्रव के निरोध से संवरयुक्त हो गये । क्योंकि आश्रवों का निरोध करने से ही संवर तत्त्व की प्राप्ति होती है। परन्तु पिहिताश्रव अर्थात् संवरयुक्त यह जीव तभी हो सकता है, जब कि उसकी अध्यात्मयोग में रति हो। इसलिए मृगापुत्र प्रशस्त योगों के द्वारा अध्यात्म ध्यान में ही लवलीन रहने लगे । अतः उनका उपशम भाव भी बड़ा ही प्रशंसनीय था और जिनागम के भी वे परम वेत्ता थे। प्रस्तुत गाथा में मृगापुत्र की अन्तरंगवृत्ति की विशुद्धता का वर्णन करने के साथ २ अध्यात्मयोग का भी अर्थतः दिग्दर्शन कराया गया है। अब इस अध्यात्मयोग के सेवन के फल का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते है कि एवं नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य। भावणाहिं य सुदाहिं, सम्मं भावेत्तु अप्पयं ॥९५॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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