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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८५७ अब फिर इसी विषय का वर्णन करते हैंअणिस्सिओइहं लोए, परलोए अणिस्सिओ। वासीचन्दणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥९३॥ अनिश्रित इह लोके, परलोकेऽनिश्रितः । वासीचन्दनकल्पश्च . , अशनेऽनशने तथा ॥९३॥ ..
पदार्थान्वयः-इहं-इस लोए-लोक में अणिस्सिओ-आश्रयरहित परलोएपरलोक में अणिस्सिओ-अनिश्रित वासी-परशु से कोई छेदन करता है य-और चंदण-चंदन का लेप करता है किन्तु दोनों पर कप्पो-समकल्प है तहा-उसी प्रकार असणे-अन्न के मिलने पर अणसणे-अन्न के न मिलने पर—समभाव हैं।
मूलार्थ-इस लोक के आश्रित नहीं और परलोक के आश्रित नहीं, तथा कोई परशु से छेदन करता है और कोई चन्दन से पूजता है, परन्तु दोनों पर समकल्प है। इसी तरह अन्न के मिलने अथवा न मिलने पर भी समभाव है।
टीका-इस गाथा में मृगापुत्र की संयमानुकूल क्रिया और भावों का दिग्दर्शन कराया गया है । यथा-तपोऽनुष्ठान से इस लोक में प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा, परस्पर की सहायता और राज्यपदवी आदि की उनको इच्छा नहीं, और न स्वर्गादि सुखों की अभिलाषा है। किन्तु उनकी संयमानुकूल सभी क्रियाएँ कर्मक्षय के निमित्त ही हैं । ऐहिक और पारलौकिक सुखों की उनके मन में अणुमात्र भी इच्छा नहीं। अतएव यदि किसी ने उनके शरीर को परशु से काटा है तो उस पर वे रुष्ट नहीं होते और किसी ने यदि उनके शरीर पर चन्दन का लेप किया तो उस पर वे प्रसन्न नहीं होते किन्तु दोनों पर समान दृष्टि रखते हैं । इसी प्रकार अन्नादि भक्ष्य पदार्थों के प्राप्त होने पर उनको हर्ष नहीं होता और न मिलने पर उद्वेग नहीं होता । तात्पर्य यह है कि इष्टानिष्ट हर एक अवस्था में वे समभाव रहते हैं। संयमशील प्रत्येक मुनि को मृगापुत्र की उक्त वृत्ति का अनुसरण करना चाहिए, यह इस गाथा का अभिप्राय है।
. अब फिर कहते हैं