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________________ ८५६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ एकोनविंशाध्ययनम् एवं किसी के द्वारा सम्मानित होने की खुशी और अपमानित होने पर दुःख नहीं, वही सच्चा त्यागी, संयमी मुनि अथवा साधु है । वास्तव में मोक्षाभिलाषी आत्मा को इन्हीं आन्तरिक गुणों के सम्पादन करने की आवश्यकता है । अब फिर कहते हैं— गारवेसु कसासु, दंडसल्लभएसु अ । नियत्तो हाससोगाओ, अनियाणो अबन्धणो ॥ ९२ ॥ 1. गौरवेभ्यः कषायेभ्यः, दण्डशल्यभयेभ्यश्च निर्वृत्तो हास्यशोकात् अनिदानोऽबान्धवः ॥९२॥ पदार्थान्वयः—–— गारवेसु– तीनों गर्व से कसा एसु - कषायों से दंड-दंड सल्ल - शल्य अ- और भएसु भयों से नियत्तो - निवृत्त हो गया हाससोगाओ - हास्य और शोक से तथा अनियाणो - निदान से रहित अबन्धणो- बन्धन से रहित । मूलार्थ - गर्व, कषाय, दण्ड, शल्य और भय से तथा हास्य और शोक से निवृत्त हो गया, तथा निदान और बन्धन से भी मुक्त हो गया । 1 टीका - संयमवृत्ति को धारण करने के अनन्तर मृगापुत्र ने तीनों गारव— गर्वों ( ऋद्धिगर्व, रसगर्व और मातागर्व ) का परित्याग कर दिया । क्रोध, मान, माया और लोभ - इन कषायों को भी छोड़ दिया । मन, वचन और काया के दंड को भी त्याग दिया । मायादि दान और मिथ्यादर्शन इन तीन प्रकार के शल्यों को भी छोड़ दिया । अतएव सात प्रकार के भयों से भी वह निवृत्त हो गया । इसके साथ ही उसका हास्य और शोक भी जाता रहा। इस प्रकार आचरण करने से उसकी प्रत्येक क्रिया निदान से रहित और बन्धन से मुक्त कराने वाली हुई । तात्पर्य यह है कि संसार में कर्मबन्ध का कारण जो राग-द्वेष हैं, उनसे वह निवृत्त हो गया । प्रस्तुत गाथा में साधु को संयम ग्रहण करने के अनन्तर किस प्रकार की धारणा रखनी चाहिए, इस बात का बड़ी सुन्दरता से दिग्दर्शन कराया गया है। सप्तमी विभक्ति के जो रूप दिये गये हैं, वे पञ्चमी के अर्थ में समझने चाहिएँ। इसी लिए यहाँ पर मी का अर्थ किया गया है ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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