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वंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
पर से ममत्व को त्याग दिया तथा उत्तमोत्तम गुणों के धारण करने का उनके मन में अहंकार भी नहीं रहा, एवं गृहस्थों के संग का भी उन्होंने त्याग कर दिया अर्थात्'गिहिसंथवं न कुज्जा कुज्जा साहुसंथवं' इस आज्ञा के अनुसार वे चलने लगे । इसी प्रकार ऋद्धि, रस और साता — इन तीनों गर्वों को भी उन्होंने छोड़ दिया । अतएव त्रस और स्थावर आदि सभी प्रकार के जीवों पर उनका समभाव हो गया । तात्पर्य यह है कि किसी भी प्राणी पर उनका राग या द्वेष नहीं रहा ।
फिर कहते हैं
लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए समो निन्दापसंसासु, तहा लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते समो निन्दाप्रशंसयोः, समो
मरणे तहा । माणावमाणओ ॥९१॥ मरणे मानापमानयोः ॥९९॥
तथा ।
पदार्थान्वयः—लाभालाभे - लाभ और अलाभ में सुहे - सुख में दुक्खे -दुःख तहा - तथा जीविए - जीवन में मरणे - मरण में समो - समभाव रखने वाला निन्दापसंसासु- निन्दा और प्रशंसा में तहा - तथा माणा माणओ - मान और अपमान में ।
मूलार्थ — वह मृगापुत्र लाभ, अलाभ; सुख, दुःख, जीवित और मरण arr निन्द्रा और प्रशंसा; एवं मान और अपमान में समभाव रखने वाला हुआ । टीका - प्रस्तुत गाथा में संयमशील साधु के आन्तरिक उत्कृष्ट गुणों का दिग्दर्शन किया गया है । तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति लाभ में और अलाभ में, सुख में और दुःख में, तथा जीवन में और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में, तथा मान और अपमान में समभाव रखने वाला होता है, वही वास्तव में मुनि अथवा साधु है। ये सम्पूर्ण गुण मृगापुत्र में विद्यमान थे। इसलिए वे उच्चकोटि के मुनियों की पंक्ति में गिने गये । सारांश यह है कि आहारादि के लाभ होने पर जिसके चित्त में प्रसन्नता नहीं, न मिलने पर खेद नहीं, जीवन की लालसा और मृत्यु का भय जिसको नहीं, तथा कोई निन्दा करे तो रोष नहीं और प्रशंसा करने वाले पर प्रसन्नता नहीं, १ संयमशील को गृहस्थों का संग न करना चाहिए किन्तु साधुओं के संसर्ग में
रहना चाहिए ।