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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकोनविंशाध्ययनम्
मूलार्थ -- पाँच महाव्रतों से युक्त, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त हुआ वह मृगापुत्र बाह्य और आभ्यन्तर तपःकर्म में सावधान हो गया ।
टीका - सर्व प्रकार की उपधि का परित्याग करके घर से निकलकर मृगापुत्र ने मुनिवृत्ति - मुनिवेष को धारण कर लिया, जैसे कि पूर्वजन्म में धारण की थी । इसलिए उनके किसी गुरु का नाम निर्देश नहीं किया गया। मुनिवेष को धारण करते हुए मृगापुत्र अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों से युक्त हो गये । ईर्या - भाषा, एषणा, आदान, निक्षेप तथा परिष्ठापना रूप पाँच प्रकार की समितियों से विभूषित और मन, वचन, कायारूप तीनों गुप्तियों से गुप्त होते हुए सर्व प्रकार के तपःकर्म में उद्यत हो गये अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार के • तप:कर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त हो गये । पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का सविस्त वर्णन इसी सूत्र के २४वें अध्ययन में किया है । तप की सविस्तर व्याख्या ३० वें अध्ययन में की गई है।
अब फिर कहते हैं—
निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो । समो अ सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ ॥९०॥
निर्ममो
समश्च
निरहंकारः, निःसंगस्त्यक्तगौरवः
सर्वभूतेषु, त्रसेषु
स्थावरेषु च ॥९०॥
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पदार्थान्वयः – निम्ममो - ममत्वरहित निरहंकारो - अहंकार से रहित निस्संग-संग से रहित चत्तगारवो-त्याग दिया है गर्व जिसने अ- और समो - समभाव रखने वाला सव्वभूएसु-सर्वजीवों में तसेसु - त्रसों में अ - और थावरेसु - स्थावरों में । मूलार्थ - ममत्व और अहंकार से रहित तथा संगरहित एवं तीनों गव से रहित वह मृगापुत्र त्रस और स्थावर आदि सर्व प्रकार के जीवों पर समभाव रखने वाला हुआ ।
टीका - संयमव्रत ग्रहण करने के अनन्तर मृगापुत्र ने संसार के सभी पदार्थों