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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ एकोनविंशाध्ययनम् पदार्थान्वयः-एवं-इस प्रकार सो-वह-मृगापुत्र अम्मापियरं-माता-पिता को अणुमाणित्ता-सम्मत करके बहुविहं-नानाविध—अनेक प्रकार के ममत्तं-ममत्व को छिन्दई-छोड़ता है ताहे-उस समय ब्ब-जैसे महानागो-महानाग-सर्प कंचुयं-कंचुक को।
मूलार्थ-इस प्रकार दीवा के लिए माता-पिता को सम्मत कर लेने के बाद वह मृगापुत्र संसार के अनेकविध ममत्व को इस प्रकार छोड़ता है, जैसे सर्प काँचली को छोड़ देता है।
टीका-संसार में बन्धन का एकमात्र कारण ममत्व है। जब तक इस जीव की सांसारिक पदार्थों पर मूर्छा बनी हुई है, तब तक वह साधु का वेष ग्रहण कर लेने पर भी कर्म के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए सारे अनर्थों का मूल कारण जो ममत्व-राग—है, उसी का परित्याग करने से कल्याण का मार्ग उपलब्ध होता है। मृगापुत्र ने दीक्षित होने से प्रथम अपने माता-पिता को अपने विचारों के अनुकूल बना लेने के बाद अर्थात् उनकी आज्ञा प्राप्त कर लेने के अनन्तर सब से प्रथम सांसारिक पदार्थों में विविध भाँति की जो आसक्ति है, उसको छोड़ दिया। और छोड़ा भी इस प्रकार से, जैसे साँप अपने ऊपर की केंचली को निकालकर परे फेंक देता है । इस दृष्टान्त से मृगापुत्र की सांसारिक विषयभोगसम्बन्धी उत्कृष्ट निस्पृहता का बोध कराया गया है । तात्पर्य यह है कि जैसे केंचली को फेंककर सर्प परे हो जाता है और उसको पीछे फिरकर देखता तक भी नहीं, उसी प्रकार मृगापुत्र ने भी सब प्रकार के ममत्व का परित्याग कर दिया । सारांश यह है कि वह मृगापुत्र द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से ममतारहित हो गया। ___ अब उनके बाह्य उपधि के परित्याग का वर्णन करते हैंइडी वित्तं च मित्ते य, पुत्तदारं च नायओ। रेणुअं व पडे लग्गं, निडुणित्ताण निग्गओ ॥८॥ ऋद्धिं वित्तं च मित्राणि च, पुत्रदाराँश्च ज्ञातीन् । रेणुकमिव पटे लग्नं, निषूय निर्गतः ॥८॥