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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८५१ मृगचर्चा चरिष्यामि, सर्वदुःखविमोक्षिणीम् । युष्माभ्यामनुज्ञातः , गच्छ पुत्र ! यथासुखम् ॥८६॥
___ पदार्थान्वयः-मिगचारियं-मृगचर्या का चरिस्सामि-आचरण करूँगा, जो सव्वदुक्ख-सर्व दुःखों से विमोक्खणि-मोक्ष करने वाली है अम्ब ! हे माता ! तुब्भेहिं-आप दोनों की अणुएणाओ-आज्ञा होने पर; गच्छ-जा पुत्त-हे पुत्र ! जहासुह-जैसे सुख हो।
मूलार्थ हे अम्ब ! आप दोनों की आज्ञा होने पर मैं मृगचर्या का आचरण करूँगा, जो कि सर्व दुःखों से मुक्त करने वाली है। [ तब उसके माता पिता ने कहा कि ] हे पुत्र ! जैसे तुमको सुख हो, वैसे करो।
टीका-संयम ग्रहण करने के लिए युवराज का अत्याग्रह देखकर माता-पिता ने उसको आज्ञा दे दी और वे संयम ग्रहण के लिए उद्यत हो गये । यह पूर्वगाथा में वर्णन आ चुका है । प्रस्तुत गाथा में भी इसी विषय को पुनः पल्लवित किया गया है। मृगापुत्र कहते हैं कि आप मुझे आज्ञा दें ताकि मैं मृगचर्या—संयमवृत्तिका अनुसरण करूँ, क्योंकि यह सर्व प्रकार के दुःखों से छुड़ाने वाली है । तब माता पिता ने उत्साहपूर्वक आज्ञा देते हुए कहा कि पुत्र ! जाओ; भले ही संयम ग्रहण करो। अर्थात् यदि इसी में तुम्हारी आत्मा को सुख है और इसी के ग्रहण करने से तुम दुःखों से छूट सकते हो तो हम तुमको बड़ी खुशी से आज्ञा देते हैं। वर्तमान काल में दीक्षासम्बन्धी जो प्रथा प्रचलित हो रही है तथा आज्ञा लेने और देने में जो कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं, उनका परिचय करना अनावश्यक है। परन्तु दीक्षा लेने
और उसकी आज्ञा देने वाले दोनों ही व्यक्तियों को इस अध्ययन के अवलोकन से अवश्य ही उचित शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । .. तदनन्तरएवं सो अम्मापियरं, अणुमाणित्ता ण बहुविहं । ममत्तं छिन्दई ताहे, महानागो व्व कंचुयं ॥८७॥ एवं सोऽम्बापितरौ , अनुमान्य बहुविधम् । ममत्वं छिनत्ति तदा, महानाग इव कञ्चकम् ॥८७॥