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'उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकोनविंशाध्ययनम्
कोई भी नहीं करता । किन्तु वह रोगी मृग उस रोगजन्य पीड़ा को सहन करता हुआ बैठा रहता है । तात्पर्य यह है कि जैसे वह मृग उस पीड़ा को शांतिपूर्वक सहन करके समय आने से उस रोग से मुक्त होने पर फिर पूर्व की भाँति स्वेच्छापूर्वक विचरता है, उसी प्रकार संयमशील पुरुष को भी धैर्यपूर्वक रोगादि के उपद्रव को सहन करके अपनी बलवती आत्मनिष्ठा का परिचय देना चाहिए । इस गाथा में सामान्य वन का उल्लेख न करके जो 'महारण्य' का उल्लेख किया है, उसका तात्पर्य यह है कि किसी छोटे से वन में तो उसकी सार-संभार लेने का उधर विचरते हुए किसी दयालु पुरुष को समय भी मिल सकता है परन्तु महाभयानक जंगल में तो किसी के भी पहुँचने की सम्भावना नहीं हो सकती। 'ण' शब्द के विषय में बृहवृत्तिकार लिखते हैं कि-'अचां संधिलोपो बहुलम्' इस नियम से 'अच्' का लोप होने पर एनं' के स्थान पर 'ण' पढ़ा गया है।
___ अब उक्त कथन को पल्लवित करते हुए फिर कहते हैंको वा से ओसहं देइ, को वा से पुच्छई सुहं । को से भत्तं च पाणं वा, आहरितु पणामई ॥८॥ को वा तस्मै औषधं दत्ते, को वा तस्य पृच्छति सुखम् । कस्तस्मै भक्तं च पानं वा, आहृत्य प्रणामयेत् ॥८॥
____ पदार्थान्वयः-वा-अथवा को-कौन से-उस मृग को ओसह-औषध लाकर देइ-देता है वा-अथवा को-कौन से-उसको सुह-सुखसाता पुच्छई-पूछता है को-कौन से-उसको भत्तं-भोजन वा-अथवा पाणं-पानी आहरित्तु-लाकर पणामई-देता है।
मूलार्थ हे पितरो ! कौन उस मृग को ओषधि देता है ? कौन सुखसाता पूछता है ? और कौन भोजन पानी लाकर उसको देता है ?
टीका-मृगापुत्र अपने पूर्वोक्त कथन को पुष्ट करते हुए फिर कहते हैं कि पिताजी ! उस भयानक अटवी में वृक्ष के नीचे पड़े हुए उस रोगी मृग को वहाँ जाकर कौन पुरुष ओषधि देता है ? कौन जाकर उसको सुखसाता पूछता है ? और कौन