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________________ - ~ ~ ~ -- -- ~ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [८४३ भी संयम और तप से अलंकृत होता हुआ अकेला ही विचरूँगा। तात्पर्य यह है कि संयम और तप ये दोनों ही धर्म के लक्षण— स्वरूप हैं। इनको धारण करता हुआ मैं मृग की भाँति स्वच्छन्दरूप से अकेला ही विचरण करूँगा । प्रस्तुत गाथा में एकत्व भावना और निस्पृह वृत्ति का वर्णन किया गया है । क्योंकि जब तक यह जीव अपने आत्मबल पर दृढ़ विश्वास रखकर उक्त वृत्ति का अवलम्बन नहीं करता, तब तक वह परमोच्चपद—मोक्षपद का अधिकारी नहीं बन सकता । इसलिए संयमशील व्यक्ति को अपने आत्मबल पर ही पूर्ण विश्वास रखना चाहिए, इसी से उसका उद्धार होगा। अब इसी विषय में फिर कहते हैंजहा मिगस्स आयंको, महारणंमि जायई । अच्छन्तं रुक्खमूलम्मि, कोणताहे चिगिच्छई ॥७९॥ यथा मृगस्याऽऽतंकः, महारण्ये जायते । तिष्ठन्तं वृक्षमूले, कस्तं तदा चिकित्सति ॥७९॥ - पदार्थान्वयः-जहा-जैसे मिगस्स-मृग को आयंको-रोग महारएणंमिमहा अटवी में जायई-उत्पन्न होता है, तब अच्छन्तं-बैठे हुए रुक्खमूलम्मि-वृक्ष के मूल में को-कौन णं-उसकी ताहे-उस समय चिगिच्छई-चिकित्सा करता है। ... मूलार्थ हे पितरों ! महाभयानक जंगल में रहने वाले मृग को जब कोई रोग उत्पन्न हो जाता है, तब उस समय किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस मृग की कौन चिकित्सा करता है ? टीका-पूर्व की गाथाओं में मृगापुत्र के माता-पिता ने साधुवृत्ति में किसी रोग के उत्पन्न होने पर, उसकी चिकित्सा का निषेध होने से जो मानसिक खेद इस वृत्ति के लिए किया था, उसका संक्षेप से तो मृगापुत्र ने प्रथम ही समाधान कर दिया था । परन्तु अब उसको विशेषरूप से समाहित करने के लिए कहते हैं कि हे पिताजी ! महारण्य–भयानक जंगल में विचरने वाले मृग को यदि किसी आतंक–सद्यःप्राणघातक रोग का आक्रमण हो जाय तो उस समय किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस रुग्ण मृग की कौन जाकर चिकित्सा करता है ? अर्थात्
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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