SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४२] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् जंगल के मृगादि पशुओं और वृक्षों पर विश्राम करने वाले पक्षियों के रोग का कौन प्रतिकार करता है ? अर्थात् उनके रोग की निवृत्ति के लिए कौन सी ओषधि उपयोग में लाई जाती है ? क्या वे औषधोपचार के बिना जीते नहीं अथवा विचरते नहीं ? तात्पर्य यह है कि जैसे मृगों और पक्षियों की वन में जाकर कोई ओषधि नहीं करता, कोई उनकी चिकित्सा नहीं करता, परन्तु फिर भी वे अपनी शेष आयु के कारण समय पर नीरोग होकर स्वच्छन्द रूप से विचरते हैं, इसी प्रकार मुनिवृत्ति को धारण करने पर भी किसी प्रतिकार की आवश्यकता नहीं है। मुनिवृत्ति में भी उदय में आये हुए असातावेदनीय कर्म के फल को शांतिपूर्वक भोगकर शेष जीवन को आनन्दपूर्वक बिताया जा सकता है । अतः मेरे लिए इस मुनिवृत्ति में उपस्थित होने वाले रोगों के बाह्य प्रतिकार का अभाव होने पर भी आपको किसी प्रकार का मानसिक खेद नहीं होना चाहिए, क्योंकि वास्तव में समस्त शारीरिक रोगों की एक मात्र ओषधि तो धैर्य है, सहनशीलता है; जो कि मेरे में विद्यमान है। अतः मुझे इसकी चिन्ता नहीं, यह मृगापुत्र के कथन का भाव है। एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरई मिगो। एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥७८॥ एकभूतोऽरण्ये वा, यथा तु चरति मृगः । एवं धर्म चरिष्यामि, संयमेन तपसा च ॥७॥ पदार्थान्वयः–एगभूओ-अकेला अरण्णे-जंगल में वा-अथवा जहाजैसे उ-निश्चयार्थक मिगो-मृग चरई-विचरता है एवं-उसी प्रकार धम्म-धर्म का चरिस्सामि-मैं आचरण करूँगा संजमेण-संयम से य-और तवेण-तप से । मूलार्थ-जैसे अरण्य में मृग अकेला ही-विना किसी की सहायता से-स्वच्छन्दरूप से विचरता है, उसी प्रकार संयम और तप के साथ मैं भी धर्म का आचरण करूँगा। टीका-मृगापुत्र कहते हैं कि इसलिए, जैसे जंगल में विना किसी की सहायता से अकेला ही मृग अपनी इच्छा के अनुसार विचरता है, उसी तरह मैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy