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________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ८४१ में जिनकल्प और स्थविरकल्प इन दो में से जो जिनकल्पी मुनि हैं वे तो रोगादि के होने पर भी उसकी निवृत्ति के लिए किसी प्रकार की ओषधि का उपयोग नहीं करते, परन्तु जो स्थविरकल्पी हैं वे अपनी इच्छा से किसी ओषधि का भले ही उपयोग न करें परन्तु निरवद्य रूप औषधोपचार का उनके लिए प्रतिषेध नहीं है । यदि उक्त गाथा के भाव का आन्तरिक दृष्टि से और भी पर्यालोचन किया जाय तो मृगापुत्र के माता-पिता के कथन का यह भी आशय प्रतीत होता है कि जिनकल्प की अपेक्षा स्थविरकल्प का ही अनुसरण करना वर्तमान काल की दृष्टि से अधिक हितकर है। माता-पिता के इस कथन को सुनकर मृगापुत्र ने जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं । सो बिंतऽम्मापियरो ! एवमेयं जहाफुडं । पडिकम्मं को कुणई, अरण्णे मियपक्खिणं ॥७७॥ स ब्रूतेऽम्बापितरौ ! एवमेतद्यथा स्फुटम् । प्रतिकर्म कः करोति, अरण्ये मृगपक्षिणाम् ॥७७॥ पदार्थान्वयः — सो - वह मृगापुत्र बिंत - कहते हैं अम्मापियरो - हे माता पिता एवं - इसी प्रकार है एयं - यह जहा - जैसे ( आपने कहा है ) फुडं - प्रकट है, परन्तु अरणे - जंगल में मियपक्खिणं - मृगों और पक्षियों का पडिकम्मं - प्रतिकार को - कौन कुणईई-करता है ? मूलार्थ -- वह (मृगापुत्र ) कहते हैं कि हे पितरो ! आपने यह जो कहा है कि साधुवृत्ति में जो रोगादि के होने पर औषधोपचार नहीं किया जाता, यह बड़े कष्ट की बात है । यह सब कुछ सत्य है परन्तु जंगल में रहने वाले मृगों और पक्षियों का रोगादि के समय में कौन उपचार करता है ? टीका - मृगापुत्र कहने लगे कि यह सब कुछ सत्य है कि साधुवृत्ति में किसी रोगादि के होने पर उसका प्रतिकार नहीं किया जाता अर्थात् रोग की निवृत्ति के लिए उत्सर्ग मार्ग में साधु को किसी प्रकार की ओषधि के ग्रहण करने का विधान नहीं, इसलिए यह बड़ा कठिन मार्ग है । परन्तु आप यह तो बतलावें कि
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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