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________________ ८३८] PARAN उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् यादृश्यो मानुष्ये लोके, तात ! दृश्यन्ते वेदनाः। इतोऽनन्तगुणिताः , नरकेषु दुःखवेदनाः ॥७॥ पदार्थान्वयः–ताया-हे तात ! जारिसा जैसी वेयणा-वेदनाएँ माणुसे लोए-मनुष्यलोक में दीसन्ति-देखी जाती हैं इत्तो-इससे अणंतगुणिया-अनन्त गुणा अधिक दुक्खवेयणा-दुःखरूप वेदनाएँ नरएसु-नरकों में देखी जाती हैं। ..... मूलार्थ-हे पिता ! जिस प्रकार की वेदनाएँ मनुष्यलोक में देखी जाती हैं, नरकों में उनसे अनन्तगुणा अधिक दुःख वेदनाएँ अनुभव करने में आती हैं। टीका-मृगापुत्र कहते हैं कि इस मनुष्यलोक में जिस प्रकार की असातारूप वेदनाओं का अनुभव किया जाता है, ठीक इन वेदनाओं से अनन्तगुणा अधिक वेदनाएँ नरकों में विद्यमान हैं, जो कि अनेक वार मेरे अनुभव में आ चुकी हैं। मनुष्यलोक में जरा और शोकजन्य दो वेदनाएँ देखी जाती हैं। इनमें जराजन्य शारीरिक और शोकजन्य मानसिक वेदना है। इन दो में समस्त वेदनाओं का समावेश हो जाता है । कुष्ठादि भयंकर रोगों के निमित्त से उत्पन्न होने वाली असातारूप : वेदना शारीरिक वेदना है और इष्टवियोग तथा अनिष्टसंयोगजन्य वेदना को मानसिक वेदना कहते हैं । परन्तु मनुष्यलोकसम्बन्धी इन शारीरिक और मानसिक वेदनाओं से नरक की वेदनाएँ अनन्तगुणा अधिक हैं, जो कि नारकी जीवों को बलात् सहन करनी पड़ती हैं। इस विषय में अधिक देखने की इच्छा रखने वाले पाठक सूत्रकातांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के पाँचवें अध्ययन को और प्रश्नव्याकरण के प्रथम अध्ययन को तथा 'जीवामि नम' आदि सूत्र देखें। अब सर्वगतियों में वेदना के अस्तित्व का वर्णन करते हैंसव्वभवेसु अस्साया, वेयणा वेदिता मए । निमिसंतरमित्तंपि , जे साया नत्थि वेयणा ॥७॥ सर्वभवेष्वसाता , वेदना वेदिता मया। निमेषान्तरमात्रमपि , यत्साता नास्ति वेदना ॥७५॥ .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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