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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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अब अपने अनुभूयमान नरकसम्बन्धी दुःखों का समुच्चय रूप से वर्णन करते हुए मृगापुत्र फिर कहते हैं—
तिव्वचण्डप्पगाढाओ, घोराओ अइदुस्सहा । महब्भयाओ भीमाओ, नरसु तीव्राश्चण्डप्रगाढाश्च घोरा महाभया भीमाः, नरकेषु वेदिता
"
मया ॥ ७३ ॥
पदार्थान्वयः — तिव्व - तीव्र चण्ड- प्रचंड प्पगाढाओ - अत्यन्त गाढ़ी घोराओ - अतिरौद्र अइदुस्सहा - अति दुस्सह मह भयाओ - महाभय उत्पन्न करने वाली भीमाओ - भयंकर – श्रवणमात्र से भय उत्पन्न करने वाली नरएसु-नरकों में दुहवेयणा–दुःखरूप वेदनाएँ मैंने अनुभव कीं ।
दुहवेयणा ॥ ७३ ॥ अतिदुःसहाः ।
मूलार्थ - नरकों में मैंने जिन दुःखरूप वेदनाओं का अनुभव किया, वे दुःखरूप वेदनाएँ तीव्र, प्रचण्ड, 'अत्यन्त गाड़ी, रौद्र, अति दुस्सह और महाभय को उत्पन्न करने वाली तथा अति भयंकर रूप हैं ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में मृगापुत्र अपनी पूर्वानुभूत दु:ख वेदनाओं का वर्णन करते हुए अपने माता-पिता से फिर कहते हैं कि मैंने जिन दुःखरूप वेदनाओं का नरकों में अनुभव किया है, वे अत्यन्त तीव्र और उत्कट थीं तथा उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी अत्यन्त अधिक थी । क्योंकि शास्त्रों में सातवें नरक की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की कही है। इस नरक में गये हुए जीव को एक क्षणमात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं होती। विपरीत इसके महान् भय और भयंकर वेदना का ही प्रतिक्षण अनुभव करना पड़ता है । यद्यपि घोर — भीम और महाभय आदि शब्द प्रायः एकार्थी हैं। तथापि शिष्यबोधार्थ इनका पृथक् २ ग्रहण किया गया है। तथा शब्दनय के अवान्तर भेदों के अनुसार इनका पृथक् रूप से ग्रहण किया जाना भी शिष्टसम्मत प्रतीत होता है। अब नरकसम्बन्धी वेदनाओं की विशिष्टता का वर्णन करते हैं
जारिसा माणुसे लोए, ताया ! दीसन्ति वेयणा । इत्तो अनंतगुणिया, नरपसु दुक्खवेयणा ॥ ७४ ॥