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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकोनविंशाध्ययनम्
परमा
नित्यं भीतेन त्रस्तेन, दुःखितेन व्यथितेन च । दुःखसंबद्धाः, वेदना वेदिता मया ॥ ७२ ॥ पदार्थान्वयः—निच्चं-नित्य – सदा भीएण- भय से तत्थेण - त्रास से दुहिएण-दुःख से य-और वहिण - व्यथा - पीड़ा से परमा - उत्कृष्ट — अत्यन्त दुहसंबद्धा - दुःखसम्बन्धिनी वेयणा - वेदना मए - मैंने वेइया - भोगी ।
मूलार्थ — मैंने निरन्तर भय से, त्रास से, दुःख से और पीड़ा से अत्यन्त दुःख रूप वेदना को भोगा ।
टीका -- प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए मृगापुत्र कहते हैं कि हे पितरो ! मैंने नरकों में निरन्तर दुःखमयी वेदना का ही अनुभव किया । कारण कि मैं सदैवकाल भयभीत बना रहा, सदैवकाल संत्रस्त - त्रासयुक्त रहा, तथा सदैवकाल मानसिक दुःख और शारीरिक व्यथा से पीड़ित रहा । इसलिए ऐसा कोई भी समय नहीं कि जिस समय मैंने किंचिन्मात्र भी सुख का श्वास लिया हो किन्तु प्रतिक्षण कल्पनातीत कष्ट और वेदना का ही मैंने अनुभव किया है । मृगापुत्र के कथन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की नरकयातनाएँ स्वोपार्जित पापकर्मों का फलरूप हैं; और वे पापकर्म विषय-भोगों की आसक्ति से बाँधे जाते हैं । अतः इन काम-भोगों के उपभोग की मेरे मन में अणुमात्र भी अभिलाषा नहीं है । विपरीत इसके इन काम-भोगों का सर्वथा त्याग करके संयम ग्रहण करने की ही मेरी उत्कृष्ट जिज्ञासा है । अब रही संयमवृत्ति में उपस्थित होने वाले कष्टों की बात, सो जब मैंने नरकों के इतने असह्य कष्ट सह लिये तो संयम के कष्टों को सहन करना मेरे लिए कुछ भी कठिन नहीं है । तथा संयम ग्रहण करने का मेरा आशय यह है कि इन उपरोक्त दुःखों से छूटने का उपाय एकमात्र संयम ही है; इसी की आराधना करने से कर्मों की निर्जरा हो सकती है । क्योंकि आश्रवद्वारों को बन्द करके संवर की भावना करता हुआ यह जीव बाह्य और आभ्यन्तर तप के अनुष्ठान से कर्ममल को दूर करके आत्मशुद्धि को प्राप्त होता हुआ परम कल्याण स्वरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । परन्तु ये सब बातें संयम में ही निहित हैं । इसलिए संयम को ग्रहण करके उसका सम्यक्तया पालन करता हुआ मैं कर्ममल से सर्वथा रहित होकर मुक्त होने ही तीव्र अभिलाषा रखता हूँ ।
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