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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६५ मेरक य-और महूणि-मधु य-पुनः पजिओमि-पिला दी, मुझे जलंतीओ-जलती हुई वसाओ-चर्बी य-और रुहिराणि-रुधिर-लहू ।
मूलार्थ—यमपुरुषों ने मुझसे कहा कि हे दुष्ट ! तुझे सुरा, सीधु, मेरक और मधु नाम की मदिरा अत्यन्त प्रिय थी; ऐसा कहकर उन्होंने मुझको अग्नि के समान जलती दुई बसा–चर्बी और रुधिर पिला दिया।
टीका-मदिरापान का परलोक में जो कटुफल भोगना पड़ता है, उसका अर्थतः दिग्दर्शन कराते हुए मृगापुत्र कहते हैं कि हे पितरो ! स्वोपार्जित अशुभ कर्म का फल भोगने के लिए जब मैं नरक में उत्पन्न हुआ, तब मुझसे यमपुरुषों ने कहा कि दुष्ट ! तुझे मनुष्यलोक में सुरा–मदिरा से बहुत प्रेम था। इसी लिए तू नाना प्रकार की मदिराओं का बड़े अनुराग से सेवन करता था। अस्तु, अब हम तुझको यहाँ पर भी सुरा का पान कराते हैं। ऐसा कहकर उन यमपुरुषों ने मुझको अग्नि के समान जलती हुई बसा–चर्बी-और रुधिर-लहू का जबरदस्ती पान कराया । वह भी एक वार नहीं किन्तु अनेक वार । मदिरा के अनेक भेद हैं। यथा सुरा–चन्द्रहास्यादि, सीधु-तालवृक्ष के रस से उत्पन्न होने वाली, मेरकदुग्ध आदि उत्तम रस पदार्थों से खींची हुई, मधु-मधूक-महुआ—आदि के पुष्पों से बनाई गई । इस प्रकार मदिरा के अनेक भेद हैं। इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में दिया गया प्रिय शब्द भी पूर्व की भाँति सहेतुक है । अर्थात् जान-बूझकर
और प्रिय तथा हितकर समझकर पान की हुई मदिरा का तो परलोक में वही फल प्राप्त होता है, जिसका कि ऊपर उल्लेख किया गया है। परन्तु यदि अज्ञान दशा में या आपत्तिकाल में, ओषधि के रूप में, उसका अप्रिय रूप सेवन किया गया हो तो उसके कटुफल की प्रायश्चित्तादि के द्वारा निवृत्ति भी हो सकती है । अर्थात् उससे उक्त फल की निष्पत्ति की संभावना नहीं हो सकती । यह गाथा में आये हुए प्रिय शब्द का रहस्य है।
अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैंनिच्चं भीएण तत्थेण, दुहिएण वहिएण य । परमा दुहसंबद्धा, वेयणा वेदिता मए ॥७२॥