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.. उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् टीका-मृगापुत्र अपने माता-पिता से कहते हैं कि अन्य जीवों के मांस से अपने शरीर को निरन्तर पुष्ट करने की प्रवृत्ति-रूप जघन्य कर्म के फल को भोगने के निमित्त जब मैं नरकगति को प्राप्त हुआ तो वहाँ पर यमपुरुषों ने मुझसे कहा कि दुष्ट ! तुझे अन्य जीवों के मांस से अत्यन्त प्यार था । इसी लिए तू मांसखंडों को भून-भूनकर खाता और आनन्द मनाता था। अच्छा, अब हम भी तुझको उसी प्रकार से मांस खिलाते हैं। ऐसा कहकर उन यमपुरुषों ने मेरे शरीर में से मांस को • काटकर और उसको अग्नि के समान तपाकर मुझे बलात्कार से अनेक वार खिलाया। तात्पर्य यह है कि अन्य मांस के बदले मेरा ही मांस काटकर मेरे को खिलाया, जिससे कि इस लोक में जिला की लोलुपता से अन्य जीवों के मांस को भक्षण करने के फल का मुझे प्रत्यक्ष और पूर्णरूप से भान हो सके। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा में जो प्रिय शब्द का उल्लेख किया है, वह सहेतुक है । उसका आशय यह है कि सुसमादारिकादि की भाँति यदि अज्ञानवश अथवा विपत्तिकाल में अर्थात् प्राणात्यय के समय कदाचित् मांस का भक्षण हो जाय तो प्रायश्चित्तादि के द्वारा उसकी शुद्धि हो सकती है। परन्तु जान-बूझकर और स्वाद के लिए किया गया मांसभोजन का पाप प्रायश्चित्तादि से भी दूर नहीं किया जा सकता; वह तो फल देकर ही पीछा छोड़ेगा। इसलिए विचारशील पुरुषों को नरकगति के हेतुभूत इस मांसभक्षण के विचार को कदाचित् भी अपने मन में स्थान नहीं देना चाहिए, यही प्रस्तुत गाथा का भाव है।
जिस प्रकार मांसभक्षण करने वाले नरकों की यातनाओं को सहन करते हैं, उसी प्रकार मदिरा का पान करने वालों को भी नरकसम्बन्धी नाना प्रकार की भयंकर वेदनाएँ सहन करनी पड़ती हैं । अब इसी विषय का अर्थतः निरूपण करते हैं
तुहं पिया सुरा सीहू, मेरओ य महूणि य । पजिओमि जलंतीओ, वसाओ रुहिराणि य ॥७॥ तव प्रिया सुरा सीधुः, मेरका च मधूनि च । पायितोऽस्मि ज्वलन्तीः, वसा रुधिराणि च ॥७१॥ .
पदार्थान्वयः-तुहं-तुझे पिया-प्रिय थी सुरा-सुरा सीहू-सीधु मेरओ