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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ____ पदार्थान्वयः-सव्व-सर्व भवेसु-भवों में अस्साया-असातारूप वेयणावेदना मए-मैंने वेइया-अनुभव की निमिसंतरमित्तंपि-निमेषोन्मेषमात्र भी जंजो साया-सातारूप वेयणा-वेदना नत्थि-नहीं अनुभव की । । __ मूलार्थ-मैंने सब भवों-जन्मों-में असातारूप वेदना का ही अनुभव किया, किन्तु सातारूप-सुख रूप-वेदना का तो निमेषमात्र भी-आँख के झपकने जितना समय भी अनुभव नहीं किया।
टीका-मृगापुत्र कहते हैं कि वास्तव में तो मैंने देव, मनुष्य, तिर्यच, और मरकसम्बन्धी किसी. भी जन्म में सुख का अनुभव नहीं किया किन्तु निरन्तर दुःखों का ही मुझे अनुभव होता रहा है । सुख का तो लेशमात्र अर्थात् आँख के झपकने जितना समय मात्र भी प्राप्त नहीं हुआ। इस कथन का तात्पर्य यह है कि कई एक जन्मों में सांसारिक सुखों के उपभोग की सामग्री भी उपलब्ध हुई परन्तु उसका अन्तिम परिणाम दुःख भोगने के अतिरिक्त और कुछ नहीं निकला। अर्थात् वे सांसारिक सुख भी इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग के कारण दुःखमिश्रित ही रहे । अतः वह सुख भी वास्तव में सुख नहीं किन्तु सुखाभास था । मृगापुत्र के उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि नरकों में उपलब्ध होने वाले दुःखों का तो दिग्दर्शन करा ही दिया गया और पशुयोनि के दुःख लोगों के सामने ही हैं तथा मनुष्यजन्म में भी जिन दुःखों का सामना करना पड़ता है, वे भी ऐसे नहीं जो कि भूले गये हों। अब रही देवगति की बात, सो वह भी जन्म-मरण के बन्धन से ग्रस्त है; उसमें भी ईर्ष्यादिजन्य दुःखपरम्परा की कमी नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि इन गतियों में सुख की लेशमात्र भी उपलब्धि नहीं होती। आप मुझे भले ही सुखी समझें परन्तु मैंने तो अपने सारे भवों में दुःख का ही अनुभव किया है। अतः इस दुःख-सन्तति से छूटने के लिए मैं तो एकमात्र संयम को ही सर्वोत्कृष्ट समझता हूँ। . मृगापुत्र के इस कथन को सुनकर उसके माता-पिता ने जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैंतं बिन्तम्मापियरो, छंदेणं पुत्त ! पव्वया। नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥७६॥