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चतुर्दशाध्ययनम् ] .. हिन्दीभाषा टीकासहितम् ।
वेदा अधीता न भवन्ति त्राणं, भोजिता द्विजा नयन्ति तमस्तमसि । जाताश्च पुत्रा न भवन्ति त्राणं, को नाम
तवानुमन्येतैतत् ॥१२॥
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पदार्थान्वयः — वेया - वेद अहीया- पढ़े हुए ताणं - त्राण-शरण न हवंति - नहीं होते दिया-द्विज भुत्ता - भोजन करवाये हुए तमं तमेणं - अज्ञानता मेंअन्धकार में निंति - पहुँचाते हैं य-और जाया - पुत्र भी न हवंति नहीं होते को - कौन नाम - संभावनार्थ में है ते तुम्हारे वाक्य को अणुमने-माने ।
ताणं - त्राण - शरण एयं - यह पूर्वोक्त
मूलार्थ - हे पिता जी ! वेद पढ़े हुए रक्षक नहीं होते, भोजन करवाये हुए द्विज भी अन्धकार में ले जाते हैं, और पुत्र भी रक्षक नहीं होते तो फिर आपके इन पूर्वोक्त वचनों को कौन स्वीकार करे अपितु कोई भी स्वीकार नहीं करेगा ।
टीका -- भृगु पुरोहित के प्रति उसके दोनों कुमार कहने लगे कि पिता जी ! पढ़े हुए ऋग्यजु आदि चारों वेद भी रक्षक नहीं होते । कारण कि केवल वेदों के अध्ययनमात्र से ही दुर्गति के जनक कर्मों की निवृत्ति नहीं हो सकती जब तक कि अध्ययन के अनुरूप आत्मा को उन्नतिपथ पर ले जाने वाली क्रिया का आचरण न किया जावे । अतः केवल वेदाध्ययन मात्र से आत्मा के कर्मबन्धन नहीं छूट सकते । और ब्राह्मणों को करवाया हुआ भोजन भी अज्ञानता का पोषक है क्योंकि वे कुमार्ग की ओर ले जाने वाले और यज्ञादि कर्मों में पशुवध आदि के समर्थक हैं ! तब उनको खिलाया हुआ भोजन क्योंकर पुण्य का जनक और ज्ञान का हेतु हो सकता है ! एवं पुत्रों को भी रक्षक मानना भूल है क्योंकि इस आत्मा का रक्षक सिवाय इसके आचरण किये हुए शुभ कर्म के और कोई नहीं हो सकता । इसलिये जब कि यह बात प्रत्यक्ष और अनुभव से सिद्ध है तब आपके इस उक्त कथन को कौन बुद्धिमान् पुरुष स्वीकार कर सकता है अर्थात् कोई भी स्वीकार नहीं करेगा । इसके अतिरिक्त इस बात का भी ध्यान रहे कि इस गाथा में जो