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________________ ५६२] उत्तराध्ययनसूत्रम् [चतुर्दशाध्ययनम् से व्याप्त हैं । उसमें आत्मा के शान्त्यादि गुण इन्धन रूप हो गए और मोहरूप वायु से वह अग्नि अधिक प्रचंड हो उठी, जिससे शान्ति के भाव सन्ताप रूप में परिणत होकर अधिक परिताप देने लगे। इसलिए भृगु पुरोहित का हृदय अधिक परिताप को प्राप्त हो गया और वह भावी पुत्रवियोग का अनुभव करता हुआ विलाप भी करने लगा। तात्पर्य कि जिस प्रकार वायु से प्रेरित हुई अग्नि सूखे वा गीले सभी प्रकार के इन्धन को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार हृदय में उत्पन्न हुई शोक रूप अग्नि आत्मा के शान्त्यादि समस्त गुणों का विनाश कर देती है । उसमें मोह रूप वायु उसको और भी अधिक प्रचंड कर देता है जिससे कि हृदय में परिताप के साथ विलाप भी पैदा हो जाता है । अस्तु, पुरोहित ने पुत्रों के व्यामोह से उन्हें अपने पास रखने के अनेक प्रयत्न किये । उनको धन का लोभ दिया । उनको विषय भोगों का लालच दिया और अनेक प्रकार के अनुनय-विनय से उनके प्रति अपना आशय भी प्रकट किया जिससे कि ये संसार के परित्याग की भावना को स्थगित कर देवें । अस्तु, भृगु पुरोहित की इस दशा को देखकर उन कुमारों ने सोचा कि हमारे पिता तो मोह से व्याकुल हो रहे हैं । इनका शोकसन्तप्त हृदय विह्वल हो रहा है । अधिक क्या कहें, ये तो इस समय अपने आपको भी भूल गए हैं । अतः इनको अब युक्ति से समझाना चाहिये, जिससे कि इनके मोहनीय कर्म का आवरण उठ जावे और ये भी सुपथ के पथिक बन जावें । यह विचार कर उन्होंने अपने पिता से इस प्रकार कहा। उन कुमारों ने जो कुछ कहा, अब उसी का वर्णन करते हैं वेया अहीया न हवन्ति ताणं, __ भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ॥१२॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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