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________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ८२५ मूलार्थ - पिपासा से अत्यन्त पीड़ित होकर भागता हुआ मैं वैतरणी नदी को प्राप्त हुआ, और जल पीऊँगा, इस प्रकार चिन्तन करता हुआ वहाँ पहुँचा तो क्षुरधाराओं से उस नदी में मैं विनाश को प्राप्त हुआ । अर्थात् उस नदी की धारा उस्तरे की धार के समान अति तीक्ष्ण थी, जिससे कि मैं व्यापादित हुआ । टीका — मृगापुत्र कहते हैं कि हे पितरो ! जब मैं भयंकर पक्षियों के द्वारा दर्शित किया गया, तब मुझको पिपासा ने भी बहुत व्याकुल किया । पिपासा से व्याकुल होकर मैं भागता हुआ जल की अभिलाषा से वैतरणी नाम की नदी के पास पहुँचा । मेरा विचार था कि मैं इस नदी के शीतल और निर्मल जल से अपनी असह्य तृषा को मिटा लूँगा परन्तु जब मैं वहाँ पहुँचा तो उस नदी का जल क्षुरधारा के समान प्रतीत होने लगा; तथा जब मैं पश्चात्ताप करता हुआ पीछे लौटने लगा, तब यमदूतों ने मुझे बलात्कार से उस नदी में धकेल दिया, जिससे कि उसकी क्षुर समान तीक्ष्ण धाराओं से मेरा शरीर विदीर्ण हो गया । मृगापुत्र के कथन का अभिप्राय भी है कि जब मैंने इस प्रकार के भयंकर कष्टों को भी सहन कर लिया है तो संयमसम्बन्धी कष्टों को सहन करना मेरे लिए कुछ भी कठिन नहीं है । एवं सांसारिक विषय-भोगों में आसक्ति रखने का ही यह भयंकर परिणाम है, जिसका ऊपर वर्णन किया गया है । अतः इन कामभोगादि विषयों के उपभोग में मुझे तनिक भी रुचि नहीं है । यह अब नरकगति में प्राप्त होने वाली उष्णता की भयंकरता तथा तज्जन्य असह्य वेदना का वर्णन करते हैं उहाभितत्तो संपत्तो, असिपत्तं असिपत्तेहिं पडन्तेहिं, छिन्नपुव्वो महावणं । अगसो ॥ ६१ ॥ उष्णाभितप्तः संप्राप्तः, असिपत्रं असिपत्रैः पतद्भिः, छिन्नपूर्वोऽनेकशः महावनम् । पदार्थान्वयः — उण्हाभितप्तो- उ ॥६९॥ - उष्णता से अभितप्त होकर असिपत्तं - असिपत्र रूप महावणं - महावन को संपत्ती - प्राप्त हुआ असिपत्तेर्हि - असिपत्रों के पडन्तेहिंपड़ने से अणेगसो - अनेक वार छिन्नपुव्वो-पूर्व में छेदन किया गया ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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