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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८२३ चिआसु-चिता में महिसो-महिष की विव-तरह दद्धो-दग्ध किया अ-और पक्को-पकाया गया अवसो-विवश हुआ पावकम्मेहिं-पापकर्मों से पाविओ-पाप करने वाला मैं।
मूलार्थ-जलती हुई–प्रचण्ड-अग्नि में और चिता में महिष की तरह डालकर मुझे जलाया गया और पकाया गया । कारण कि मैंने पापकर्म किये और उन्हीं पापकर्मों के प्रभाव से परवश हुआ मैं इस दशा को प्राप्त हुआ।
टीका—अब मृगापुत्र अपने उपभोग में आई हुई नरकसम्बन्धी अन्य यातना का वर्णन करते हैं । वे कहते हैं कि मुझे जाज्वल्यमान प्रचंड अग्नि वाली चिता में महिष की भाँति जलाया और पकाया गया। क्योंकि मैंने पूर्वजन्म में जो पापकर्म किये थे, उन्हीं के प्रभाव से मुझे इस असह्य कष्ट को भोगना पड़ा । तात्पर्य यह है कि यह जीव किसी भी योनि में चला जाय परन्तु कर्म का फल भोगे विना उसका छुटकारा नहीं हो सकता । यहाँ पर प्रत्येक गाथा में 'पापकर्म' शब्द का प्रयोग करने का शास्त्रकारों का अभिप्राय यह है कि नरकगति के दुःखों का मूलकारण पापकर्म ही है अर्थात् इन्हीं के प्रभाव से नरकगति के भयंकर दुःखों को भोगना पड़ता है। तथा उक्त गाथा में जो उपमा के लिए महिष का उल्लेख किया है, उसका तात्पर्य यह है कि महिष नाम का पशु उष्ण स्थान में अत्यन्त दुःखी होता है। इसलिए नरक गति को प्राप्त होने वाले पापात्मा जीव को भी इस प्रचंड अग्नि में दग्ध होते समय असह्य वेदना का अनुभव करना पड़ता है।
अब फिर इसी विषय में कहते हैंबला संडासतुंडेहिं, लोहतुंडेहिं पक्खिहिं । विलुत्तो विलवंतोऽहं, ढंकगिद्देहिंऽणंतसो ॥५९॥
बलात् संदंशतुण्डैः, लोहतुण्डैः पक्षिभिः । विलुप्तो विलपन्नहम् , ढंकगृधेरनन्तशः ॥५९॥
पदार्थान्वयः-बला-बलात्कार से अहं-मुझे संडासतुंडेहि-संडासी के समान मुख वाले लोहतुंडेहि-लोहे के तुल्य कठिन मुख वाले पक्खिहि-पक्षियों ने