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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ एकोनविंशाध्ययनम्
मूलार्थ – परवश हुए मुझको लोहमय रथ के आगे आग के समान जलते हुए जुए में जोड़ दिया, फिर चाबुकों से रोक - गवय के समान मारकर भूमि पर गिरा दिया।
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टीका — हे पितरो ! मुझे नरकों में यमपुरुषों ने बहुत असह्य कष्ट दिये । जैसे— लोहे के विकट रथ में मेरे को जोड़ा गया, जिसका जूआ प्रचंड अग्नि के समान जल रहा था। उस जूए के नीचे मेरी गर्दन रखकर बैल की भाँति मुझे जोड़ा गया और पीछे से चाबुकों की मुझ पर खूब मार पड़ती थी । परवंश हुए मुझको उन निर्दय यमदूतों ने इस तरह मार-मारकर पृथिवी पर गिरा दिया, जैसे कोई अनार्य पुरुष रोक - नील गाय को मारकर भूमि पर गिरा देते हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे नील गाय अत्यन्त सरल और भद्रप्रकृति का पशु होता है, उसी प्रकार मैं भी दीन और असहाय था । इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा में लोहरथ में जोड़ने आदि की नारकी पुरुषों की जो भयंकर वेदना का वर्णन किया है, उसका तात्पर्य यह है - जो पुरुष दयारहित होकर पशुओं को गाड़ी आदि में जोड़कर उन पर अत्याचार करते अर्थात् प्रमाण से अधिक बोझ लादकर उनको ऊपर से और भी मारते हैं, वे ही पुरुष परलोक में इस प्रकार की नरक यातनाओं को भोगते हैं । अतः विचारशील पुरुषों को इस प्रकार के अन्याय से सदा अलग रहना चाहिए । 'तोत्रयोक्त्रैः' का अर्थ वृत्तिकार इस प्रकार करते हैं - 'प्राजनकबन्धनविशेषैर्मर्माघट्टनाहननाभ्यामिति गम्यते' अर्थात् चाबुक आदि से मर्मस्थानों को अभिहनन करके नीचे गिरा दिया, यह भाव है ।
अब नरकसम्बन्धी अन्य यातना का वर्णन करते हैं-.
हुआसणे जलंतम्मि, चिआसु महिसो विव । दो पक्को अ अवसो, पावकम्मेहिं पाविओ ॥ ५८ ॥
हुताशने
दग्धः
ज्वलति, चितासु महिष इव ।
पापकर्मभिः
प्रावृतः ॥५८॥
पक्कश्वावशः, पदार्थान्वय: – हुआसणे - हुताशन- अनि जलतम्मि-प्रज्वलित में वा