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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८१७ मरुदेश वा कोलंबु देश के नाम से यह भी भली भाँति सिद्ध हो जाता है किआगे भी भूगोल की शिक्षा पूर्ण उन्नति पर थी और जिस २ देश में जो जो मुख्य वस्तु होती थी, उसका भी परिचय कराया जाता था।
अब फिर उक्त विषय का वर्णन करते हैंरसंतो कंदुकुंभीसु, उड़े बद्धो अबंधवो।
करवत्तकरकयाईहिं , छिन्नपुव्वो अणन्तसो ॥५२॥ रसन् कन्दुकुम्भीषु, ऊर्ध्वं बद्धोऽबान्धवः । करपत्रक्रकचैः , छिन्नपूर्वोऽनन्तशः ॥५२॥
पदार्थान्वयः-रसंतो-आक्रन्दन करते हुए कंदुकुंभीसु-कंदकुम्भी में उड्डेऊँचा बद्धो-बाँधकर अबंधवो-खजन से रहित मुझे करवत्त-करपत्र-आरा करकयाईहिं-क्रकचों-लघुशस्त्रों से छिन्नपुव्वो-छेदन किया पूर्व में अणन्तसोअनन्त वार ।
मूलार्थ-आक्रन्दन करते हुए, स्वजन से रहित मुझे कंदुकुंभी में ऊँचा बाँधकर करपत्र और क्रकचों से पूर्व में अनन्त वार छेदन किया गया।
टीका-मृगापुत्र कहते हैं कि जब मैं नरकों में उत्पन्न हुआ था, तब यम. पुरुषों ने मुझे नाना प्रकार के कष्टों से पीड़ित किया । जैसे कि—विलाप करते हुए मुझको वृक्ष आदि से बाँधकर करपत्र—आरा-और अन्य शस्त्रों से छेदन किया गया, 'तथा नीचे कंदुकुंभी रक्खी गई ताकि वृक्षादि से गिरने पर भी उसमें ही पड़े, जिससे कि अग्नि के द्वारा भी मुझे तपाया जाय । और मेरी स्थिति उस समय पर यह थी कि मैं उस समय अपने बन्धुजनों से सर्वथा रहित था । अर्थात् मेरी सहायता के लिए अथवा मेरी इस दशा को देखने के लिए मेरा कोई भी बन्धु वहाँ पर उपस्थित नहीं था । यहाँ पर गाथा में दिये गये 'अबांधव' शब्द का भी यही तात्पर्य है कि लोक में कष्टप्राप्ति के समय पर इनको ही अर्थात् स्वजन और मित्रवर्ग को हीसहायता करते देखा जाता है परन्तु नरकगति की यातना के समय में इनमें से किसी का भी वहाँ पर अस्तित्व नहीं था, और न हो सकता है।