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________________ ८१६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् गये 'पुव्व' शब्द से, यह उक्त वृत्तान्त पूर्वजन्म का ही समझना, वर्तमान समय का नहीं। वर्तमान में तो वह मनुष्यगति में वर्त रहा है। ___ अब फिर इसी विषय में कहते हैं । यथामहादवग्गिसंकासे , मरुमि वइरवालुए। कलम्बवालुयाए उ, दडपुवो अणन्तसो ॥५१॥ महादवाग्निसंकाशे , मरौ वज्रघालुकायाम् । कदम्बवालुकायां च, दग्धपूर्वोऽनन्तशः ॥५१॥ .. पदार्थान्वयः-महादवग्गिसंकासे–महादवाग्नि के सदृश मरुमि-मरुभूमि के वालुका के समान वइरवालुए-वज्रवालुका में, अथवा कलम्बवालुयाए-कदम्बवालुका-नदी में उ-तु तो दडपुन्यो-पूर्व मुझे दग्ध किया गया अणंतसो-अनंत वार । मूलार्थ–महादवाग्नि के समान आग में, और मरुदेश के समान वज्रमय वालुका में तथा कदम्बवालुका में अनन्त वार जलाया और तपाया गया । टीका-नरकगति की भयंकर यातनाओं का दिग्दर्शन करते हुए मृगापुत्र ने सांसारिक कामभोगों के उपभोग से उत्पन्न होने वाले कटु परिणाम को बड़ी ही सुन्दरता से व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि मैंने पूर्वजन्म में नरक की वज्रवालुका और कदम्बवालुका के सन्ताप को अनेक वार सहन किया है अर्थात् इनमें मुझे अनेक वार तपाया गया। तात्पर्य यह है कि प्रचंड दावानल के समान नरक में एक भयंकर नदी है। उसकी वालुका मरुदेश की अतितीक्ष्ण वालुका के समान अति उष्ण और तीक्ष्ण अतएव वनमय है । तथा कदम्ब नदी की तीक्ष्ण वालुका के समान अत्यन्त उष्ण वालुका में मुझे अनेक वार तपाया गया जलाया गया। प्रस्तुत गाथा में महादवानि, मरुवजवाणुका और कदम्बवालुका, इन नदियों और देशों की वालुका की उपमा ग्रहण की गई है परन्तु 'मरुमि-मरौं' इस सप्तम्यन्त पद से जैसे देशविशेष की वालुका-रेत सिद्ध होता है, ठीक उसी प्रकार 'कदम्बवालुका' से भी देशविशेष का ही ग्रहण है। जैसे 'कलंबु–कोलंबु' देश की वालुका बहुत तीक्ष्ण होती है परन्तु इस देश का अस्तित्व आर्य देश से भिन्न विदेशभूमि में पाया जाता है; तथा साथ ही
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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