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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् [ एकोनविंशाध्ययनम् अब नरकसम्बन्धी अन्य यातना का वर्णन करते हुए उक्त विषय का ही समर्थन करते हैं । यथा— अइतिक्खकंटगाइण्णे, तुंगे सिंबलिपायवे । खेवियं पासबडेणं, कड्डोकड्डाहिं दुक्करं ॥५३॥ अतितीक्ष्णकण्टकाकीर्णे, तुंगे शाल्मलिपादपे । क्षेपितं पाशबद्धेन, कर्षणापकर्षणैर्दुष्करम् ॥५३॥ पदार्थान्वयः—— अइ-अति तिक्ख - तीक्ष्ण कंटगाइणे - काँटों से आकीर्ण - .. व्याप्त तुंगे-ऊँचे सिंबलि- शाल्मलि पायवे - वृक्ष में — पर खेवियं - क्षपित करवाया पासबद्धेणं - पाशबंध से कड्डोकड्ढाहिं - कर्षणापकर्षण करके मुझे दुःख दिया, जो कि अति दुक्करं—दुस्सह था । ८१८] मूलार्थ - अति तीक्ष्ण काँटों से व्याप्त ऊँचे शाल्मलि वृक्ष पर मुझे पाशबद्ध करके कर्मों का फल भुगताया तथा कर्षणापकर्षण से मुझे असा कष्ट दिया। टीका - मृगापुत्र कहते हैं कि हे पितरो ! अतितीक्ष्ण काँटों से व्याप्त और अति ऊँचे शाल्मलि वृक्ष पर उन यमदूतों ने मुझे रस्सी से बाँधकर मेरे पूर्वोपार्जित कर्मों का फल भुगताया अर्थात् जिस प्रकार के पापकर्मों का मैंने पूर्वजन्म में संचय किया था, उसी के अनुसार मुझे फल दिया गया । अतएव उन तीक्ष्णं काँटों पर मुझे इधर-उधर घसीटा गया । तात्पर्य यह है कि उन काँटों पर से खींचकर मुझे अत्यन्त कष्ट पहुँचाया गया, जिसकी कि इस समय पर कल्पना करते हुए भी अत्यन्त भय लगता है । 'खेवियं—–क्षेपितम्' के विषय में वृत्तिकार लिखते हैं कि 'पूर्वोपार्जितं कर्म अनुभूतं मया यानि कर्माणि उपार्जितानि तानि भुक्तानीति शेष:' अर्थात् जैसे कर्म पूर्वजन्म में किये थे, उन्हीं कर्मों के अनुसार मैंने उनके फल को भोग लिया । तथा'कर्षणापकर्षण' का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार कृत्य करने से वेदना की उदीर्णा की जा सकती है । अत: उन्होंने काम किये, जिनसे मुझे विशेष दुःख प्राप्त हो । अब फिर इसी विषय में कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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