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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकोनविंशाध्ययमम्
वक्तव्य इस समय केवल इतना ही है कि तुम इस समय तो मनुष्यसम्बन्धी काम भोगों का उपभोग करो जो कि शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पाँच गुणों से युक्त हैं । तथा इन विषयों का उपभोग कर चुकने के बाद जब कि तू वृद्धावस्था को प्राप्त होगा, तब अपनी इच्छा के अनुसार धर्म में दीक्षित हो जाना अर्थात् संयमवृत्ति को ग्रहण करके उसका यथाविधि पालन करना, परन्तु इस समय तू उसके योग्य नहीं । इसलिए अभी तो संयमवृत्ति की उपेक्षा करके विषयभोगों में प्रवृत्त होना ही तेरे लिए उचित है । इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा से यह भी ध्वनित होता है कि उस समय जैन-वानप्रस्थाश्रम और भिक्षु आश्रम में लोग प्रायः आयु के चतुर्थ भाग में ही प्रविष्ट होते होंगे तथा भुक्तभोगी होने के पश्चात् धर्म में भी अवश्य दीक्षित होते होंगे । इसी अभिप्राय से मृगापुत्र के माता-पिता ने उसे युवावस्था में संयम ग्रहण करने का निषेध और वृद्धावस्था में उसके स्वीकार करने की अनुमति दी है, किन्तु संयम के ग्रहण का निषेध नहीं किया ।
I
माता-पिता के इन संयमसम्बन्धी विचारों को सुनने के बाद युवराज मृगापुत्र ने उनके प्रति क्या कहा, अब इसी विषय का प्रतिपादन किया जाता है
सो
बिंतऽम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं ।
इह लोए निप्पवासस्स, नत्थि किंचिवि दुक्करं ॥४५ ॥ ब्रूतेऽम्बापितरौ एवमेतद् यथास्फुटम् ।
स
इह लोके निष्पिपासस्य, नास्ति किंचिदपि दुष्करम् ॥४५॥ पदार्थान्वयः —– सो – वह — मृगापुत्र बिंत - कहने लगा अम्मापियरो - माता पिता को एवम् - इसी प्रकार एयं - यह —- प्रव्रज्या आदि का पालन करना जहा-यथा फुडं - स्फुट है— सत्य है— किन्तु इह - इस लोए - लोक में निष्पिवासस्सनिष्पिपास—पिपासारहित— को किंचिवि - किंचित् भी दुक्करं - दुष्कर नत्थि - नहीं है ।
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मूलार्थ - हे माता ! और पिता ! आपने दीक्षा के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा है, वह सब सत्य है - यथार्थ है; परन्तु जो पुरुष इस लोक में पिपासारहित हैं, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं ।