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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका – माता-पिता के पूर्वोक्त कथन को सुनकर युवराज मृगापुत्र बोले आपने संयमवृत्ति की दुष्करता के विषय में जो कुछ भी प्रतिपादन किया है, वह सर्वथा यथार्थ है अर्थात् संयमवृत्ति का यथावत् पालन करना अत्यन्त कठिन है, यह बात निस्सन्देह सत्य है । परन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि जिन पुरुषों को इस लोक के विषयभोगों की सर्वथा इच्छा नहीं अर्थात् जो जीव ऐहिक विषयभोगों से सर्वथा विरक्त — उपराम हो चुके हैं, उनके लिए इस लोक में कोई भी काम दुष्कर नहीं अर्थात् उन धीर पुरुषों के लिए संयमवृत्ति का पालन करना कुछ भी कठिन नहीं है । इसका तात्पर्य यह है कि जो पुरुष ऐहिक विषय-भोगों में आसक्त हैं, उनके लिए ही संयमवृत्ति का अनुष्ठान दुष्कर हैं परन्तु जो पुरुष इस लोक के विषयभोगजन्य सुखों की अभिलाषा ही नहीं रखते, उनके लिए तो संयमवृत्ति का निर्वाह दुष्कर नहीं किन्तु अत्यन्त सुकर है । सारांश कि मुझे इस लोक के विषयभोगों के उपभोग की इच्छा नहीं है । अत: मेरे लिए यह संयमवृत्ति अत्यन्त सुकर है, यह इस गाथा फलितार्थ है ।
अब ऐहिक विषयों से उपरति होने का कारण बतलाते हैं—
सारी माणसा चेव, वेयणा उ अनंतसो ।
. शारीरमानस्यश्चैव मया सोढा
मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्खभयाणि य ॥४६॥ वेदनास्तु अनन्तशः । भीमाः, असकृद् दुःखभयानि च ॥ ४६ ॥
पदार्थान्वयः - सारीर - शारीरिक च - और माणसा-मानसिक एव - निश्चय में वेयणा-वेदना उ–वितर्क में अतसो - अनन्त वार मए - मैंने सोढाओ -सहन की भीमाओ - अत्यन्त रौद्र असई - अनेक वार दुक्ख - दुःख य - और भयाणि - भयों को— सहन किया ।
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मूलार्थ - हे पितरो ! मैंने अनन्त वार अतिभयानक शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को सहन किया तथा अनेक वार दुःख और भयों का अनुभव किया है। टीका - प्रस्तुत गाथा में मृगापुत्र ने अपने पूर्वजन्मों में अनुभव की हुई दुःख-यातनाओं का अपने माता-पिता के समक्ष वर्णन किया है, जो कि उसकी