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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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रूप से हो रहा है, वह आत्मा भी उपशमरूप-शान्तरूप जो समुद्र है उससे पार नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य यह है कि संयमवृत्ति का पालन वही आत्मा कर सकता है, जिसके कषाय उपशमभाव में रहें । परन्तु तेरे कषाय अभी उत्कट भाव में विद्यमान हैं, इसलिए तू इस श्रमणवृत्तिरूप उपशान्त महासागर को पार करने के योग्य नहीं है । कारण कि अल्पसत्त्व वाले आत्मा में दृष्टवस्तु के वियोग और अनिष्टवस्तु के संयोग से कषायों का उदय शीघ्र ही हो जाता है, परन्तु श्रमणवृत्ति में इनका अभाव ही अपेक्षित है। यहाँ पर इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि पूर्वगाथा में गुणों के समुद्र का वर्णन किया गया है और प्रस्तुत गाथा में दमरूप सागरविशेष का वर्णन किया गया है। इसलिए पुनरुक्तिदोष की आशंका नहीं। इसके अतिरिक्त संयमवृत्ति में परम शांति की नितान्त आवश्यकता है, यह भी उक्त गाथा से ध्वनित होता है ।
अब मृगापुत्र के माता-पिता अपने आन्तरिक भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं किभुंज माणुस्सए भोए , पंचलक्खणए तुमं ।। भुत्तभोगी तओ जाया ! पच्छाधम्मचरिस्ससि ॥४४॥ मुंश्व मानुष्यकान् भोगान् , पंचलक्षणकान् त्वम् । भुक्तभोगी ततो जात ! पश्चाद् धर्म चरिष्यसि ॥४४॥
___पदार्थान्वयः-मुंज-भोग माणुस्सए-मनुष्यसम्बन्धी भोए-भोगों को पंचलक्खणए-पाँच लक्षणों वाले तुमं-तू भुत्तभोगी-भुक्तभोगी होकर तओ-तदनन्तर जाया-हे पुत्र ! पच्छा-पीछे से धम्म-धर्म को चरिस्ससि-ग्रहण करना ।
मूलार्थ हे पुत्र ! तू अभी पाँच लक्षणों वाले मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों का उपभोग कर । तदनु भुक्तभोगी होकर फिर तुमने धर्म का आचरण करना अर्थात् संयम ग्रहण करके मुनिवृत्ति का पालन करना ।
टीका-मृगापुत्र के माता-पिता कहते हैं कि हे पुत्र ! हमने प्रथम कहा था कि तरुण अवस्था में इन्द्रियों का निग्रह करना अत्यन्त कठिन है। इसलिए हमारा