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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकोनविंशाध्ययनम्
टीका - यहाँ पर श्रमणत्व को अत्यन्त दुष्कर बतलाने के लिए जो मेरु पर्वत का दृष्टान्त दिया है, वह सर्वथा समुचित है । अर्थात् जिस प्रकार मेरु पर्वत को लकड़ी से तोला नहीं जा सकता, उसी प्रकार एकाग्र मन से और सम्यक्त्वादि में सर्वथा शंकारहित होकर साधुवृत्ति का अनुष्ठान भी दुर्बल आत्मा से नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि द्रव्य और भाव से ममत्व का सर्वथा त्याग करके श्रमणवृत्ति के अनुसार तपश्चर्या प्रवृत्त होना बहुत ही कठिन है। द्वितीय पक्ष में, जैसे मेरु पर्वत का माप करना अत्यन्त दुष्कर है, उसी प्रकार श्रमणधर्मोचित गुणों का माप करना और उनको धारण करना भी निर्बल आत्मा के लिए असंभव नहीं तो कठिनतर अवश्य है । मृगापुत्र के माता पिता के कथन का अभिप्राय यह है कि तू जिस परिस्थिति में इस समय पल रहा है और तेरे शरीर की जो अवस्था है, उससे तू श्रमणवृत्ति के योग्य प्रतीत नहीं होता । अतः इसकी ओर तुम्हें ध्यान नहीं देना चाहिए । अब फिर उक्त विषय का ही समर्थन करते हुए कहते हैं
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जहा भुयाहिं तरिउं, दुक्करं तहा अणुवसन्तेणं, दुक्करं
रयणायरो | दमसागरो ॥४३॥
रत्नाकरः ।
यथा भुजाभ्यां तरितुं, दुष्करो तथाऽनुपशान्तेन
दुष्करो
दमसागरः ॥४३॥
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पदार्थान्वयः – जहा - जैसे भुयाहिं- भुजाओं से तरिउं - तरना रयणायरोरत्नाकर दुक्करं - दुष्कर है तहा - उसी प्रकार अणुवसंतेणं - अनुपशान्त से — उत्कट कषाय वाले से दमसायरो- इन्द्रियदमन रूप समुद्र अथवा उपशम रूप समुद्र का तरना दुक्करं - दुष्कर है ।
मूलार्थ — जैसे भुजाओं से समुद्र का तैरना दुष्कर है, उसी प्रकार अनुपशान्त – उत्कट कषाय वाले — आत्मा से दम रूप समुद्र का तैरना दुष्कर है। टीका - मृगापुत्र के माता पिता कहते हैं कि हे पुत्र ! जिस प्रकार भुजाओं से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार जिस आत्मा के कषायों क्रोध, मान, माया और लोभ—का उदय हो रहा है, इतना ही नहीं किन्तु वह उदय भी उत्कट