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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८०७ यथा दुःखं भर्तुं यो, भवति वायोः कोस्थलः। तथा दुष्करं कर्तुं यत्, क्लीबेन श्रामण्यम् ॥४१॥
___ पदार्थान्वयः-जहा-जैसे दुक्खं-कठिन होइ-होता है भरेउं-भरना वायस्स-वायु से कोत्थलो-वस्त्र का कोथला-थैला तहा-तैसे दुक्खं–कठिन है करेउंकरना कीवेणं-क्लीब पुरुषों को समणत्तणं-संयम का पालन करना जे-पादपूर्ति में ।
मूलार्थ-जैसे वायु से कोथला-थैला-भरना कठिन है, उसी प्रकार क्लीव [ कम सत्त्व वाले ] पुरुष को संयम का पालन करना कठिन है।
टीका-इस गाथा का भावार्थ यह है कि जिस प्रकार वस्त्र की कोथली में भरा हुआ वायुं ठहर नहीं सकता, उसी प्रकार निर्बल आत्मा में संयमपोषक शीलादि मुणों की स्थिति नहीं हो सकती। तात्पर्य यह है कि सत्त्वहीन, कम सत्त्व वाले जीव संयमोपयोगी गुणों को धारण करने की शक्ति नहीं रखते । विपरीत इसके जैसे धर्म के कोथले में भरा हुआ वायु ठहर सकता है, उसी प्रकार सत्त्वशाली वीर पुरुष ही संयमवृत्ति को धारण कर सकते हैं । यहाँ पर कपड़े के कोथले के समान क्लीवात्मा है और शील आदि गुण वायु के तुल्य कहे गये हैं। तथा 'जे' शब्द पादपूर्ति में है, और 'वायस्स' वातेन—यह तृतीया विभक्ति के अर्थ में षष्ठी का प्रयोग किया गया है।
अब फिर इसी विषय का प्रतिपादन करते हैंजहा तुलाए तोलेउं, दुक्करो मंदरो गिरी। तहा निहुयं नीसंकं, दुक्करं समणत्तणं ॥४२॥ यथा तुलया तोलयितुं, दुष्करो मन्दरो गिरिः । तथा निभृतं निःशंकं, दुष्करं श्रमणत्वम् ॥४२॥
पदार्थान्वयः-जहा-जैसे तुलाए-तुला से तोलेउ-तोलना दुक्करो-दुष्कर है मंदरो-मन्दिर नामा गिरी-पर्वत तहा-उसी प्रकार निहुयं-निश्चल और नीसंकंशंका से रहित होकर दुक्कर-दुष्कर है समणत्तणं-साधुवृत्ति का पालन करना ।
___ मूलार्थ-जैसे तुला से मेरु पर्वत का तोलना दुष्कर है, ठीक उसी प्रकार निश्चलचित्त और शंकारहित होकर साधुवृत्ति का पालन करना भी अत्यन्त कठिन है।