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PAPPORTANTRA
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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ एकोनविंशाध्ययनम् __अब फिर इसी विषय का प्रतिपादन करते हैंबालुयाकवले चेव, निरस्साए उ संजमे । असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो ॥३८॥ बालुकाकवलश्चैव , निःस्वादस्तु संयमः । असिधारागमनं चैव, दुष्करं चरितुं तपः ॥३८॥
पदार्थान्वयः–बालुया-बालू के कवले-कवल की एव-तरह संजमे-संयम निरस्साए-स्वादरहित है उ-वितर्क में असिधारा-खड्ग की धारा पर गमणं-गमन की एव-तरह दुक्करं-दुष्कर है तवो-तप का चरिउं-आचरण करना च-समुच्चय अर्थ में, वा पादपूर्ति में है।
मूलार्थ-जैसे बालू के कवल में कोई रस नहीं, उसी प्रकार संयम भी नीरस अथच स्वादरहित है तथा जैसे तलवार की धार पर चलना दुष्कर है, उसी प्रकार तप का आचरण करना भी अत्यन्त कठिन है।
टीका-इस गाथा में बालू और असिधारा 'के दृष्टान्त से संयमवृत्ति को अत्यन्त नीरस और दुश्चरणीय बतलाया है । जैसे बालू-रेत बिलकुल नीरस और स्वादरहित होता है, उसी प्रकार यह संयम भी नीरस अथच निःस्वाद है । यद्यपि संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जो कि कोई न कोई रस अथवा स्वाद न रखता हो तथापि ग्रहण करने वाले पुरुष को जिस रस की इच्छा हो, उसके प्रतिकूल पदार्थ को वह नीरस ही मानता है। इसी प्रकार मुमुक्षु पुरुषों को यद्यपि संयम में सरसता प्रतीत होती है तथापि विषयासक्त संसारी पुरुषों की दृष्टि में वह सर्वथा नीरस है। इसी आशय से बालू के समान इसको स्वादरहित बतलाया है । जिस प्रकार असिधारा पर चलना कठिन है, उसी प्रकार संयमक्रिया का अनुष्ठान करना भी नितान्त कठिन है। तात्पर्य यह है कि जैसे खड्गधारा पर चलने वाला पुरुष जरा सी असावधानी से मारा जाता है अर्थात् उसके पाँव आदि शरीर के अंग-प्रत्यंग के कट जाने का भय रहता है, इसी प्रकार तप के अनुष्ठान में भी असावधानता करने वाले पुरुष को महान् से महान् अनिष्ट उपस्थित होने की संभावना रहती है। इसलिए हे पुत्र ! इस संयम का पालन करना तुम्हारे जैसे राजकुमार के लिए अत्यन्त कठिन है।