________________
एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[८०५
- अब फिर अन्य दृष्टान्त के द्वारा संयम की दुष्करता का प्रतिपादन करते हैं। यथा
अही वेगन्तदिट्ठीए, चरित्ते पुत्त ! दुच्चरे । जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं ॥३९॥ अहिरिवैकान्तदृष्टया , चारित्रं पुत्र ! दुश्वरम् । यवा लोहमयाश्चैव , चर्वयितव्याः सुदुष्कराः ॥३९॥
____ पदार्थान्धयः-अही–साँप इव-की तरह एगंत-एकान्त दिहीए-दृष्टि से पुत्त-हे पुत्र ! चरित्ते-चारित्र दुच्चरे-दुश्चर है च-पुनः एव-जैसे लोहमया-लोहमय जवा-यव चावेयव्या-चर्वण करने सुदुक्करं-अति दुष्कर हैं।
मूलार्थ हे पुत्र ! जैसे साँप एकाग्र दृष्टि से चलता है, उसी प्रकार एकाग्र मन से संयमवृत्ति में चलना कठिन है । तथा जैसे लोहमय यवों का चर्वण करना दुष्कर है, उसी प्रकार संयम का पालन करना भी दुष्कर है ।
टीका-इस गाथा में चारित्र की दुष्करता बतलाने के लिए दो दृष्टान्त दिये गये हैं—पहला सर्प का और दूसरा लोहे के यवों का । जैसे कंटकादियुक्त मार्ग में सर्प एकाग्र दृष्टि से चलता है अर्थात् मार्ग में चलता हुआ सर्प अपनी दृष्टि को इधर उधर नहीं करता, तात्पर्य यह है कि काँटा आदि लग जाने के भय से वह मार्ग में सर्वथा सावधान होकर चलता है। जिस प्रकार उसका यह गमन अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार संयममार्ग में चलना भी अत्यन्त कठिन है । क्योंकि काँटों की तरह संयममार्ग में भी अनेक प्रकार के अतिचार आदि दोषों के लग जाने की संभावना रहती है । तथा जिस प्रकार लोहे के यवों को दाँतों से चबाना अत्यन्त दुष्कर है, उसी प्रकार संयम का पालन करना भी अत्यन्त दुष्कर है । तात्पर्य यह है कि संयम का पालन करना और लोहे के चने चबाना ये दोनों बातें समान हैं । जो पुरुष लोहे के चने चबाने की सामर्थ्य रखता हो, उसी का संयम में प्रवृत्त होना ठीक है, और का नहीं। अत: तुम्हारे जैसे कोमलप्रकृति के बालक इस संयम का पालन नहीं कर सकते, यह इस गाथा का भाव है। यहाँ पर 'एव' शब्द उपमा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। .
अब संयम की दुष्करता के लिए अग्नि का दृष्टान्त देते हैं । यथा