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________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [८०३ चन्द्रमा के लिए कोई विश्राम का स्थान नहीं, उसी प्रकार इस वृत्ति में आरूढ हुए साधु के लिए भी विश्राम का कोई स्थान नहीं । इसलिए इस वृत्ति के तू योग्य नहीं है। __अब उक्त विषय की पुष्टि के लिए एक और उदाहरण देते हैं । यथाआगासे गंगसोउ व्व, पडिसोउ व्व दुत्तरो। बाहाहिं सागरो चेव, तरियव्वो गुणोदही ॥३७॥ आकाशे गंगास्रोत इव, प्रतिस्रोत इव दुस्तरः । बाहुभ्यां सागरश्चैव, तरितव्यो गुणोदधिः ॥३७॥ . पदार्थान्वयः-आगासे-आकाश में गंगसोउ-गंगा नदी के स्रोत की व्वतरह पडिसोउ-प्रतिस्रोत व्व-वत् दुत्तरो-दुस्तर है बाहाहि-भुजाओं से सागरोसागर च-पुनः एव-निश्चय में तरियव्वो-तैरना कठिन है, इसी प्रकार गुणोदहीगुणों का समुद्र भी तैरना कठिन है। मूलार्थ-इस साधुवृत्ति का अनुष्ठान आकाश में गंगास्रोत और प्रतिस्रोत की भाँति दुस्तर है । तथा जैसे भुजाओं से समुद्र का तैरना कठिन है, उसी प्रकार ज्ञानादि गुणों के समुद्र का पार करना भी अत्यन्त कठिन है। टीका-प्रस्तुत गाथा में संयमवृत्ति के पालन को गंगाप्रवाह के दृष्टान्त से अत्यन्त कठिन बतलाने का प्रयत्न किया गया है। मृगापुत्र के माता पिता कहते हैं • कि हे पुत्र ! गंगानदी का स्रोत हिमालय से निकलकर बहता है। उसकी सौ योजन प्रमाण धारा नीचे गिरती है। उस धारा को पकड़कर जैसे पर्वत पर चढ़ना दुस्तर है, उसी प्रकार संयमवृत्ति का सम्यग् अनुष्ठान करना भी दुस्तर है। तथा जैसे अन्य नदियों के प्रतिस्रोतों में तैरना कठिन है अर्थात् जहाँ पर पानी ऊँचे स्थान से नीचे गिरता है और जल का प्रवाह बड़े वेग से बहता है— जैसे उस प्रवाह में तैरना कठिन है, उसी प्रकार संयमवृत्ति का पालन करना भी अत्यन्त कठिन है । तथा जैसे भुजाओं से समुद्र का पार करना दुस्तर है, उसी प्रकार ज्ञानादि गुणों के समूहरूप समुद्र का पार करना भी नितान्त कठिन है। तात्पर्य यह है कि भुजाओं से समुद्र पार करने की भाँति मन, वचन और शरीर से जीवनपर्यन्त ज्ञानादि गुणों का सम्यक् रूप से आराथन करना निस्सन्देह अधिक से अधिक कठिन है। . .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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