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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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त्याग और सव्वारम्भ - सर्व प्रकार के आरम्भ का परिचागो - परित्याग करना सुदुक्करं - अतीव दुष्कर है ।
मूलार्थ — हे पुत्र ! धन, धान्य और दासवर्ग में ममत्व का त्याग करना बहुत कठिन है, तथा परिग्रह और सर्वप्रकार के आरम्भ का परित्याग करना अतीव दुष्कर है ।
टीका - यद्यपि परिग्रह के अनेक भेद हैं, परन्तु सब में घटित होने वाला परिग्रह का लक्षण मूर्च्छा है— 'मुच्छापरिग्गहोबत्तो' अर्थात् मूर्च्छा - ममत्व का नाम परिग्रह है । अत: सांसारिक पदार्थों में मूर्च्छा — ममत्व का जीवनपर्यन्त त्याग करना बहुत कठिन है । इसी लिए कहा गया है कि धन, धान्य, नृत्य आदि वर्ग में ममत्व का त्यागना बहुत कठिन है । क्योंकि ममत्व का मूल कारण राग है और राग का त्याग करने से ही सांसारिक पदार्थों पर से ममता दूर हो सकती है । परन्तु राग . का त्याग करना कितना कठिन है, इसके लिए किसी प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं है । अतएव परिग्रह का त्याग करना सामान्यकोटि के मनुष्यों के लिए नितान्त कठिन है तथा आरम्भ का त्याग भी अतिदुष्कर है । क्योंकि यावन्मात्र धन के उत्पन्न करने के व्यापार हैं, वे सब आरम्भपूर्व कहे हैं; उनका सर्व प्रकार से और सदा के लिए त्याग कर देना कुछ साधारण बात नहीं है । इसी तरह सदा ममता रहित होना भी अत्यन्त कठिन है । क्योंकि संसार में जितने भी प्राणी हैं वे प्रायः सचित्त, अचित्त और मिश्रित पदार्थों के संसर्ग में आकर उनमें ममता बाँधे बैठे हैं अर्थात् उनमें खचित हो रहे हैं। ऐसी दशा में उनसे मोह का त्याग करना कितना कठिन है, यह बात सहज ही में समझी जा सकती है। तात्पर्य यह है कि इन पदार्थों पर से ममत्व का दूर करना बहुत ही कठिन काम है । प्रस्तुत गाथा में धन का प्रथम ग्रहण करना उसकी सर्वप्रधानता का सूचक है अर्थात् धन ममत्व में प्राणिमात्र की वृत्ति लगी हुई है । इसी कारण अन्य पदार्थों में ममत्व की जागृति होती है ।
इस प्रकार पाँचों महाव्रतों की दुष्करता का वर्णन करने के अनन्तर अब छठे रात्रिभोजन की दुष्करता का प्रतिपादन करते हैं