SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ एकोनविंशाध्ययनम् 1 चव्विऽवि आहारे, राईभोयणवजणा सन्निहीसंचओ चेव, वजेयव्वो सुदुक्करं ॥ ३१॥ चतुर्विधेऽप्याहारे , रात्रिभोजनवर्जना सन्निधिसञ्चयश्चैव वर्जितव्यः सुदुष्करः ॥३१॥ पदार्थान्वयः — चउव्विहेवि आहारे - चार प्रकार का आहार राई भोयणेरात्रिभोजन वजणा - वर्जनीय है संनिही - रात्रि को संचयो - संचय घृतादि पदार्थों का च - पुनः एव - निश्चय वजेयव्त्रो वर्जन करना सुदुक्करं - अति दुष्कर है. 1 मूलार्थ - रात्रि में चारों प्रकार के आहार का परित्याग करना और किसी पदार्थ का संचय न करना, यह काम बड़ा दुष्कर है। ७६८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् · " टीका- हे पुत्र ! साधु को रात्रि में अन्न, पानी, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा त्याग कर देना, इतना ही नहीं किन्तु रात्रि में घृत आदि पदार्थों तथा ओषधि आदि द्रव्यों का संचय संग्रह भी नहीं करना चाहिए । अतः आयुपर्यन्त इस व्रत का पालन करना बहुत कठिन है । रात्रिभोजन के परित्याग में एक तो जीवों की रक्षा होती है, दूसरे तप का संचय होता है । तथा रात्रि में सन्निधि और पदार्थसंग्रह से ममत्व की जागृति और त्रस जीवों की अवहेलना का होना स्वाभाविक है । अतः इसका भी साधु के लिए निषेध है । यहाँ पर रात्रिभोजन के साथ २ कालातिक्रान्त और क्षेत्रातिक्रान्त आहार का त्याग भी जान लेना तथा उत्तर गुणों में अभिग्रहादि को भी समझ लेना । इस कथन से राजा और राणी का साधुचर्या से सुपरिचित होना भी भली प्रकार से व्यक्त होता है । इस प्रकार रात्रिभोजन के त्याग की दुष्करता का प्रतिपादन करने के अनन्तर अब अन्य परिषहों के सहन की दुष्करता का वर्णन करते हैं । यथा 1 छुहा तण्हा य सीउण्हं, दंसमसगवेयणा अक्कोसा दुक्खसिज्जा य, तणफासा जल्लुमेव य ॥३२॥ तालणा तज्जणा चेव, वहबन्धपरीसहा 1 दुक्खं भिक्खायरिया, जायणाय अलाभया ॥३३॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy