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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ एकोनविंशाध्ययनम् विरतिरब्रह्मचर्यस्य कामभोगरसज्ञेन 1 उग्रं महाव्रतं ब्रह्मचर्य, धारयितव्यं सुदुष्करम् ॥ २९॥ पदार्थान्वयः – विरई - विरति अबंभचेरस्स - अब्रह्मचर्य की कामभोगरसन्नुणा- कामभोगों के रस को जानने वाले को उग्गं - उम्र - प्रधान महव्वयंमहाव्रत बंभं - ब्रह्मचर्य धारेयव्वं धारण करना सुदुक्करं - अतिदुष्कर है । ७९६ ] " मूलार्थ - कामभोगों के रस को जानने वाले पुरुष के लिए मैथुन से निवृत्त होना बहुत ही कठिन है तथा सर्वप्रधान ब्रह्मचर्य रूप महाव्रत का पालन करना भी अतीव दुष्कर हैं। 1. टीका - मृगापुत्र के माता पिता चतुर्थ महाव्रत की दुष्करता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे पुत्र ! कामभोगों में आसक्त और उनके क्षणस्थायी सुखों का अनुभव करने वाले रसज्ञ पुरुष को मैथुन का त्याग करना बहुत कठिन है । क्योंकि जो अज्ञानी जीव इनके आपातरमणीय स्वरूप पर मोहित होकर इनमें मूच्छित हो गया है, उससे मैथुन रूप अब्रह्मचर्य का परित्याग होना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि तुमने इन कामभोगों के रसों का न्यूनाधिकरूप में अनुभव किया है, अतः तेरे लिए इनका त्याग दुष्कर है। इसी कारण हे पुत्र ! सर्वव्रतों में प्रधानता को धारण करने वाले इस ब्रह्मचर्य रूप महाव्रत का पालन करना अतीव दुष्कर है। अर्थात् एक कामरसज्ञ पुरुष के लिए मन, वचन और काया से आजन्म ब्रह्मचारी रहना नितान्त कठिन है 1 अब पाँचवें महाव्रत की दुष्करता का प्रतिपादन करते हैं 1. धणधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवखणं सव्वारम्भपरिच्चागो, निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥३०॥ धनधान्यप्रेष्यवर्गेषु , परिग्रहविवर्जनम् निर्ममत्वं सर्वारंभपरित्यागः " सुदुष्करम् ॥३०॥ पदार्थान्वयः - - धण - धन धन-धान्य पेसवग्गेसु - प्रेष्य- दास वर्ग में निम्ममतं - निर्ममत्व — ममता का त्याग तथा परिग्गह - परिग्रह का विवजणं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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