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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[७६५ दन्तसोहणमाइस्स , अदत्तस्स विवजणं । अणवजेसणिजस्स , गिण्हणा अवि दुक्करं ॥२८॥ दन्तशोधनादेः , अदत्तस्य विवर्जनम् । अनवद्यैषणीयस्य , ग्रहणमपि दुष्करम् ॥२८॥
पदार्थान्वयः-दंतसोहणम्-दंतशोधनमात्र आइस्स-आदि पदार्थ भी अदत्तस्स-विना दिये विवजणं-वर्जन करने, तथा अणवज-निरवद्य और एसणिजस्स-निर्दोष प्रदार्थों का गिएहणा अवि-ग्रहण करना भी दुक्कर-दुष्कर है।
___ मूलार्थ-दन्तशोधनमात्र पदार्थ का भी विना दिये ग्रहण न करना, किन्तु सदैव निरवद्य और निर्दोष पदार्थों का ही ग्रहण करना यह भी दुष्कर है।
टीका-संयमशील साधु के तीसरे व्रत का नाम है अदत्तादानविरमण । इसका अर्थ है विना दिये कुछ भी ग्रहण नहीं करना । तात्पर्य यह है कि यदि साधु को दन्तशोधन के लिए किसी तृण आदि पदार्थ की आवश्यकता पड़े तो उसको भी वह विना उसके स्वामी की आज्ञा के ग्रहण नहीं कर सकता । यदि साधु विना आज्ञा के एक तृणमात्र भी ग्रहण कर लेता है तो उसके उक्त व्रत में त्रुटि आ जाती है। इसलिए ऐसे नियम का जीवनपर्यन्त पालन करना कुछ सहज नहीं किन्तु बहुत कठिन है। तथा सदैव निरवद्य और निर्दोष भिक्षा मिले, तभी उसको ग्रहण करने का नियम भी अत्यन्त कठिन है। कारण कि सदैव आज्ञा लेना और सदैव निर्दोष आहार ग्रहण करना ये दो तत्त्व इस व्रत के मूल कारण हैं। पहले में तो हर एक छोटी बड़ी वस्तु को माँगकर लेने का विधान है, दूसरे में सचित्त भोजन के त्याग का निर्देश है, क्योंकि उसके प्रथम व्रत में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी जीव हैं उन सब को हिंसा से निवृत्त होने का आदेश है । अतः साधु के लिए सचित्त आहार के ग्रहण का सर्वथा निषेध है। यहाँ पर मकार अलाक्षणिक है।
अब चतुर्थ व्रत की दुष्करता के विषय में कहते हैंविरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । उग्गं महव्वयं बंभं, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥२९॥