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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[चतुर्दशाध्ययनम्
जाया-हे पुत्रो ! भोचाण-भोग कर भोए-भोगों को इत्थियाहि-स्त्रियों के सहसाथ आरण्णगा-आरण्यवासी पसत्था-प्रशस्त मुणी-मुनि-मननशील होइहो जाना।
मूलार्थ-हे पुत्रो ! तुम वेदों को पढ़कर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर, स्त्रियों के साथ भोगों को भोग कर और पुत्रों को घर में स्थापन करके फिर अरण्यवासी प्रशस्त मुनि बन जाना।
टीका-भृगु पुरोहित ब्राह्मण-वैदिक धर्म के अनुसार अपने दोनों पुत्रों को उपदेश करते हैं कि प्रथम तुम वेदों का अध्ययन करो। विद्याध्ययन को समाप्त करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर गृहस्थ धर्म में प्रवेश करो । फिर विषय भोगों का सेवन करते हुए सन्तान को उत्पन्न करो। सन्तानोत्पत्ति के बाद जब वह योग्य हो जावे तब उसको घर में स्थापन करके फिर तुम जंगल में रहने और मुनिवृत्ति को धारण करने में प्रवृत्ति करो । यही प्राचीन वैदिक शैली है । इसी के अनुसार तुम को चलना चाहिए।
इसके अनन्तर जो कुछ हुआ, अब उसका वर्णन शास्त्रकार करते हैंसोयग्गिणा आयगुणिन्धणेणं,
मोहाणिला पज्जलणाहिएणं । संतत्तभावं परितप्पमाणं,
लालप्पमाणं बहुहा बहुं च ॥१०॥ शोकाग्निना आत्मगुणेन्धनेन,
मोहानिलात् . प्रज्वलनाधिकेन । संतप्तभावं परितप्यमानं,
लालप्यमानं बहुधा बहु च ॥१०॥
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