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________________ चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [५८६ कहा कि वेदवित् लोग कहते हैं कि पुत्ररहित की गति नहीं होती-'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । गृहधर्ममनुष्ठाय तेन स्वर्ग गमिष्यति' । अर्थात् पुत्र रहित मनुष्य को परलोक में सुख की प्राप्ति नहीं होती । तात्पर्य कि पुत्र के विना इस लोक में सुख नहीं तथा परलोक में भी पिंडदानादि के विना सुख का प्राप्त होना कठिन है । अतएव शास्त्रकारों ने पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है'पुं नरकात् त्रायते इति पुत्रः' अर्थात् जो नरक से बचाता है, वह पुत्र है । जब कि वेदवेत्ताओं का ऐसा कथन है तब तुम वेदाज्ञा का उल्लंघन करके किस प्रकार मुनिवृत्ति को धारण कर सकते हो, यह भृगु के कथन का आशय है । इसी अभिप्राय से शास्त्रकार ने भृगुपुरोहित के वचन को कुमारों के तप रूप संयम का विघातक कहा है । तथा प्रस्तुत गाथा में उन कुमारों के लिए जो मुनि शब्द का प्रयोग किया है वह भावी नैगम नय के अनुसार है । तात्पर्य कि वे द्रव्य रूप से यद्यपि गृहस्थ ही हैं परन्तु भाव रूप से उनमें मुनित्व की प्राप्ति हो चुकी है। इसलिए भाव की दृष्टि से उन्हें मुनि कहना उचित ही है। इसके अनन्तर पिता ने उन कुमारों के प्रति फिर कहा किअहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, __ पुत्ते परिदृप्प गिहंसि जाया। भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होइ मुणी पसत्था ॥९॥ अधीत्य वेदान् परिवेष्य विप्रान् , पुत्रान् परिष्ठाप्य गृहे जातौ । भुक्त्वा भोगान् सह स्त्रीभिः, आरण्यको भवतं मुनी प्रशस्तौ ॥९॥ पदार्थान्वयः-अहिज्ज-पढ़कर वेए-वेदों को परिविस्स-भोजन करवाकर विप्पे-ब्राह्मणों को पुत्ते-पुत्रों को गिहंसि-घर में परिदृप्प-स्थापन करके
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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