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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ५८.] [ चतुर्दशाध्ययनम् हम आप से आज्ञा चाहते हैं । तात्पर्य कि आप हमें धर्म में दीक्षित होने की अनुमति प्रदान करें। __ यहां पर 'लभामो-आमंतयामो-चरिस्सामु' ये सब बहुवचन द्विवचन के स्थान पर प्रयुक्त हुए जानने । क्योंकि प्राकृत में द्विवचन नहीं होता । अतएव 'तथा चास्मदोऽविशेषणे' इस सूत्र से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग किया जाता है। पुत्रों के इस वचन को सुनकर भृगु पुरोहित कहने लगेअह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं, . . तवस्स वाघायकरं वयासी। . इमं वयं वेयविओ वयन्ति, जहा न होई असुयाण लोगो ॥८॥ अथ तातकस्तत्र मुन्योस्तयोः, .. तपसो व्याघातकरमवादीत् । इमां वाचं वेदविदो वदन्ति, यथा न भवत्यसुतानां लोकः ॥८॥ पदार्थान्वयः-अह-अथ तायगो-पिता तत्थ-उस समय तेसिं-उन मुणीण-मुनियों को तवस्स-तप के वाघायकरं-व्याघात करने वाला वचन वयासीबोला इमं यह वयं-वाणी वेयविओ-वेदवित् वयंति-कहते हैं जहा-जैसे असुयाण-पुत्ररहितों को लोगो-लोक वा परलोक न होई-नहीं होता। मूलार्थ-उस समय पिता ने उन भाव मुनियों के तप को व्याघात करने वाला यह वचन कहा कि पुत्ररहितों को लोक वा परलोक की प्राप्ति नहीं होती, ऐसे वेदवित् कहते हैं। टीका-जब उन कुमारों ने पिता के पास आकर अपने मनोगत भाव प्रकट किये तब पिता ने उनके तप और संयम में विनरूप इस प्रकार का वचन
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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