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चतुर्दशाध्ययनम् ] · हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[५८७ असासयं दट्ठ इमं विहारं,
बहुअन्तरायं न य दीहमाउं। तम्हा गिहंसि न रई लभामो,
आमन्तयामो चरिस्सामु मोणं ॥७॥ अशाश्वतं दृष्ट्वेमं विहारं,
बह्वन्तरायं न च दीर्घमायुः। तस्माद् गृहे न रतिं लभावहे,
___ आमंत्रयावश्चरिष्यावो मौनम् ॥७॥
पदार्थान्वयः-असासयं-अशाश्वत इम-यह प्रत्यक्ष विहारं-विहार को दट्ट-देखकर बहुअंतरायं-बहुत से अन्तराय को य-और न दीहमाउं- आयु दीर्घ नहीं है तम्हा-इसलिए गिहंसि-घर में रइं-रति-आनन्द को न लभामोहम नहीं प्राप्त करते आमन्तयामो-आपको पूछते हैं मोणं-मुनि वृत्ति को चरिस्सामु-ग्रहण करेंगे।
मूलार्थ-यह विहार-मनुष्य का निवास स्थान अशाश्वत है । इसमें अन्तराय-विघ्न बहुत हैं तथा आयु भी दीर्घ नहीं । इसलिए हम घर में रतिआनन्द को प्राप्त नहीं करते । अतः हम मौन-मुनिवृत्ति को ग्रहण करेंगे। यह आप से पूछते हैं अर्थात् आपकी आज्ञा चाहते हैं ।
. टीका-वैराग्य के रंग में रंगे हुए भृगु पुरोहित के दोनों पुत्र पिता के पास आकर कहने लगे कि पिता जी ! यह मनुष्य का निवास अशाश्वत अर्थात् स्थिर रहने वाला नहीं है तथा इसमें अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं और आयु भी दीर्घ नहीं है। इसलिए हम दोनों को इसमें अब रति नहीं-आनन्द नहीं । तात्पर्य कि मनुष्यसम्बन्धी इन विनश्वर सुखों से हम को किंचिन्मात्र भी प्रसन्नता नहीं है । अतः मुनिवृत्ति को ग्रहण करने के लिए