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________________ wwwwwwwwww ५८६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ चतुर्दशाध्ययनम् कामभोगों में जे-जो य-और अवि-निश्चय ही दिव्वा-देवलोक के कामभोगों से खचित न होते हुए किन्तु मोक्खाभिकंखी-मोक्ष की आकांक्षा रखने वाले अभिजायसडा-उत्पन्न हुई है मोक्ष में जाने की श्रद्धा जिनमें तातं-पिता के पास उवागम्म-आकर इमं-यह वचन उदाहु-कहने लगे। मूलार्थ-स्वकर्मनिष्ठ ब्राह्मण पुरोहित के वे दोनों प्रिय पुत्र-कुमार अपने पूर्वजन्म का तथा उसमें अर्जन किये हुए तप और संयम का स्मरण करके देव और मनुष्यसंबन्धी कामभोगों से विरक्त हुए हैं तथा मोक्ष की इच्छा और उसकी प्राप्ति में विशिष्ट श्रद्धा रखते हुए, पिता के पास आकर इस प्रकार कहने लगे ( यह दोनों गाथाओं का संमिलित अर्थ है)। टीका-वे दोनों कुमार भृगु नाम के पुरोहित के प्रिय पुत्र थे । भृगु भी साधारण ब्राह्मण नहीं था किन्तु कर्मनिष्ठ और विचारशील था । साधुओं के दर्शन से उन कुमारों को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उससे उनको अपने पूर्वजन्म तथा उसमें अर्जित किये हुए तप और संयम का भी ज्ञान हो गया । इससे उनको वैराग्य उत्पन्न हो गया । तब वे देवता और मनुष्यसम्बन्धी सभी प्रकार के काम भोगों से विरक्त होकर मोक्ष की इच्छा करने लगे और उसी के लिये विशिष्ट श्रद्धा रखने लगे। इस प्रकार संसार से विरक्त और मोक्ष की अभिलाषा में अनुरक्त वे दोनों कुमार अपने पिता के पास आकर इस प्रकार कहने लगे। यद्यपि जातिस्मरण ज्ञान देवता को भी होता है और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को भी था, परन्तु धर्म में मनुष्य की अभिरुचि तब होती है जब कि उसके ज्ञानावरणीयादि चारों घाती कमों का क्षय और क्षयोपशम होता है । इसलिए सामान्य रूप से जातिस्मरण के होने पर भी ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को विषयों से उपरामता नहीं हुई और दोनों कुमार काम भोगादि से विरक्त होकर मोक्ष के अभिलाषी हो गए। पिता के पास आकर उन कुमारों ने जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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