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________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् । [ ७९१ पदार्थान्वयः – जहा - जैसे गेहे - घर के पतित्तम्मि-प्रज्वलित होने पर तस्सउस गेहस्स - घर का जो-जो पहू- प्रभु है, वह — सारभंडाणि - सार वस्तुओं को नीइ - निकाल लेता है असारम् - असार को अवउज्झइ - छोड़ देता है । एवं - इसी प्रकार लोए - लोक के पलित्तम्मि- प्रदीप्त होने पर जराए - जरा से य-और मरणेण - मृत्यु से अप्पाणं - आत्मा को तारइस्साम्मि - तारूँगा, अत: तुमेहिं - आपसे अणुमनिओ - अनुज्ञा माँगता हूँ । मूलार्थ - जिस प्रकार घर के प्रज्वलित होने पर उस घर का स्वामी उस घर में रही हुई सार वस्तुओं को निकाल लेता है और असार को छोड़ देता है, उसी प्रकार जरा और मरण से प्रदीप्त होने वाले इस लोक में मैं अपनी आत्मा को तारूँगा, अतः आप मुझे इसके लिए अनुमति प्रदान करें । मृत्यु टीका - मृगापुत्र कहते हैं कि घर के जलने पर उस घर का स्वामी उस घर में रहे हुए सार पदार्थों – रत्नसुवर्णादि को बाहर निकालने का प्रयत्न करता है और असार [जीर्णवस्त्र, खाट, बिछौना आदि जो चिरस्थायी तथा मह नहीं हैं ] पदार्थों को वहीं पर छोड़ देता है । उसी प्रकार यह लोक भी जन्म, जरा और मृत्यु की आग से प्रज्वलित हो रहा है। तात्पर्य यह है कि लोक में जरा और से संसारी जीव व्याकुल हो रहे हैं । अतः घर का स्वामी घर को आग लग जाने पर सब से प्रथम उस घर में रहे हुए सार पदार्थों को ही निकालने का प्रयत्न करता है । ठीक उसी प्रकार 1 भी जन्म, जरा और मृत्यु से दग्ध, अथ च व्याप्त इस लोक में सारभूत अपनी आत्मा को इससे बाहर निकालने की इच्छा करता हूँ । अत: आप मुझे इसके लिए आज्ञा प्रदान करें ताकि मैं अपनी आत्मा का उद्धार कर सकूँ । यहाँ पर जो आज्ञा की प्रार्थना की गई है, वह युवराज पदवी की अपेक्षा से ही जाननी चाहिए । द्विवचन के स्थान पर 'तुब्भेहिं' पद, जिसमें बहुवचन का प्रयोग किया है, माता पिता के प्रति अधिक पूज्यभाव दिखलाने के अभिप्राय से किया गया है । एवं लोक शब्द से – स्वर्ग, पाताल और मर्त्य इन तीनों का ही ग्रहण अभीष्ट है क्योंकि यह अभि इन तीनों में ही है । युवराज मृगापुत्र के इस कथन को सुनकर उसके माता पिता ने उसके प्रति जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं—
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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