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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकोनविंशाध्ययनम्
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करके परलोक में साथ ले जाने वाला पुरुष भी किसी प्रकार के कष्ट को प्राप्त नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पाथेययुक्त यात्री मार्ग में सुखी रहता है, उसी प्रकार धर्म रूप पाथेय को साथ में लेकर परलोक की यात्रा करने वाला जीव भी सब प्रकार से सुखी रहता है। असातावेदनीय के स्वल्प होने से उसको वहाँ पर किसी प्रकार की विशेष वेदना नहीं होती। इसका अभिप्राय यह है कि-'हिंसापसूयाणिदुहाणिमत्ता' अर्थात् हिंसा से सभी प्रकार के दुःखों का उद्भव होता है। इस कथन के अनुसार हिंसा-करता को अधर्म और अहिंसा-दया को धर्म कहा गया है। इससे सिद्ध हुआ कि अहिंसा-दया रूप धर्म का पालन करने से यह जीव दुःखों से छूट जाता है। इसी आशय को लेकर सूत्रकार ने धर्म के आचरण करने का फल अल्प कर्म और अवेदन बतलाया है। तात्पर्य यह है कि असातावेदनीय के अल्प होने से वेदना का अनुभव नहीं होता । यदि होता भी है तो बहुत स्वल्प, जो कि नहीं के समान होता है । इस सारे कथन से यह सिद्ध होता है कि मुमुक्षु पुरुष के लिए एकमात्र आचरणीय धर्म है, जो कि सर्व प्रकार के दुःखों का समूलघात करने में सब से अधिक शक्तिमान् है । उस धर्म का आचरण यदि वीतरागभाव से किया जाय तब तो उसका फल मोक्ष है और यदि सरागभाव से उसका अनुष्ठान किया जाय तब उसका फल ऊँचे से ऊँचे देवलोक की प्राप्ति तक है।
__ अब प्रस्तुत विषय में अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए मृगापुत्र कहते हैं किजहा गेहे पलित्तम्मि, तस्स गेहस्स जो पहू। सारभांडाणि नीणेइ, असारं अवउज्झइ ॥२३॥ एवं लोए पलित्तम्मि, जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि, तुब्भेहिं अणुमनिओ ॥२४॥ यथा गृहे प्रदीप्ते, तस्य गृहस्य यः प्रभुः । सारभाण्डानि निष्कासयति, असारमपोज्झति ॥२३॥ एवं . लोके प्रदीप्ते, जरया मरणेन च। . आत्मानं.. तारयिष्यामि, युष्माभ्यामनुगतः ॥२४॥