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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ७६ ___ पदार्थान्वयः-जो-जो पुरुष महंत-महान् अद्धाणं-मार्ग को तु-वितर्क अर्थ में सपाहेजो-पाथेयसहित पवजई-गमन करता है गच्छंतो-जाता हुआ सोवह सुही-सुखी होइ-होता है छुहा-भूख तण्हा-प्यास से विवजिओ-रहित होकर ।
मूलार्थ-जो पुरुष पाथेययुक्त होकर विशाल मार्ग की यात्रा करता है, वह मार्ग में क्षुधा और तृषा की बाधा से रहित होता हुआ सुखी रहता है।
टीका-जो पुरुष दीर्घ मार्ग की यात्रा में पर्याप्त पाथेय लेकर प्रवृत्त होता है, वह मार्ग में सुखी रहता है अर्थात् उसको मार्ग में भूख अथवा प्यास आदि का कोई भी कष्ट नहीं सताता क्योंकि उसके पास मार्ग के कष्ट को निवृत्त करने की पर्याप्त सामग्री होती है । यद्यपि मार्ग में क्षुधा और तृषा के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के कष्ट उपस्थित हो सकते हैं तथापि समस्त कष्टों में क्षुधा और तृषा का कष्ट सब से अधिक प्रबल माना जाता है। इसलिए सूत्र में उन्हीं का निर्देश किया गया है। .. अब उक्त दृष्टान्त का निगमन करते हुए कहते हैं किएवं धम्मं पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं । गच्छन्तो सो सुही होइ, अप्पकम्मे अवेयणे ॥२२॥ एवं धर्ममपि कृत्वा, यो गच्छति परं भवम् । गच्छन् स सुखी भवति, अल्पकर्माऽवेदनः ॥२२॥
पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार पि-संभावना में धम्म-धर्म को काऊणंकरके जो-जो पुरुष गच्छइ-जाता है परं भवं-परभव को गच्छंतो-जाता हुआ सो-वह सुही-सुखी होइ-होता है अप्पकम्मे-अल्प कर्म वाला अवेयणे-वेदना से रहित होता है। . मूलार्थ—इसी प्रकार जो जीव धर्म का संचय करके परलोक को जाता है, वह वहाँ जाकर सुखी हो जाता है और असातावेदनीय कर्म के अल्प होने से विशेष वेदना को भी प्राप्त नहीं होता ।
टीका-मृगापुत्र कहते हैं कि जिस प्रकार पाथेय को साथ लेकर यात्रा करने वाला पुरुष मार्ग में दुःखी नहीं होता, उसी प्रकार इस लोक में धर्म को संचित